Showing posts with label rajasthani lokkatha. Show all posts
Showing posts with label rajasthani lokkatha. Show all posts

किसान की होशियार बेटी राजस्थानी लोककथा

किसान की होशियार बेटी राजस्थानी लोककथा

Rajasthani lokkatha


एक समय की बात है रामपुर गांव में बलदेव नाम का एक किसान रहता था। उसकी एक बेटी मीना थी जो बहुत सुन्दर और होशियार थी। बलदेव के खेत जमींदार के पास गिरवी थे।


किसान की होशियार बेटी लोककथा का वीडियो लिंक


बलदेव खेतों में मेहनत करके घर का गुजारा चलाता था। उसने 3-4 महीने खेत में काम करके एक फ़सल उगाई थी। जो फ़सल अब पक कर तैयार हो चुकी थी। बलदेव ने अपनी सारी फ़सल को बेचकर पैसे कमा लिए। बलदेव फ़सल बेचकर जो भी पैसे मिलते थे उसके तीन हिस्से लगाता था।

एक हिस्सा वह घर के ख़र्च के लिए रखता था। दूसरा हिस्सा जमींदार को ब्याज़ के रूप में देता था और तीसरा हिस्सा अपनी बेटी मीना की शादी के लिए अलग से रख देता था। फ़सल बिकने पर जमींदार अपना ब्याज़ लेने बलदेव के घर पहुंच गया।

वहाँ पर उसने मीना को देखा जो की बहुत सुन्दर थी। उसके बाद वह बलदेव से अपना ब्याज़ लेकर चला गया। कुछ दिनों में बलदेव अपनी अगली फ़सल उगाने में लग गया। 3-4 महीने की मेहनत के बाद फ़सल उग गयी और कुछ दिनों के बाद उसकी कटाई होने वाली थी।

लेकिन तभी बारिश शुरू हो गयी और कुछ दिनों तक लगातार बारिश होती रही जिससे सारी फ़सल ख़राब हो गयी। इससे बलदेव और उसकी बेटी मीना बहुत दुखी हो गए। कुछ दिनों के बाद जमींदार अपना ब्याज़ लेने के लिए बलदेव के घर पर पहुंच गया।

बलदेव ने उसको बताया की अबकी बार बारिश की वजह से उसकी सारी फ़सल ख़राब हो गयी। जमींदार ने मीना की तरफ़ देखा और बलदेव से बोला यदि तुम अपनी बेटी की शादी मुझसे करा देते हो तो मै तुम्हारा सारा कर्ज माफ़ कर दूंगा। इस पर बलदेव ने आपत्ति जताई तो जमींदार ने एक तरकीब बताई की हम एक खेल खेलते है।

इसमें में एक काला और सफ़ेद पत्थर मै एक मटके के अंदर डाल दूंगा। मीना को उसमे से बिना देखे एक पत्थर को निकलना है। यदि वह काला पत्थर निकालेगी तो मीना को मुझसे शादी करनी होगी और मै तुम्हारा सारा कर्ज माफ़ कर दूंगा।

यदि वह सफ़ेद पत्थर निकालेगी तो उसको मुझसे शादी नहीं करनी पड़ेगी और मै तुम्हारा सारा कर्ज माफ़ कर दूंगा।

बलदेव को जमींदार का ब्याज़ भी देना था यदि वह उसकी बात नहीं मानता तो उसने खेल के लिए हा कर दी। जमींदार बहुत धोखेबाज़ था उसने जमीन से दोनों काले पत्थर लिए  और मटके के अंदर डाल दिए। मीना ने उसको दोनों काले पत्थर मटके के अंदर डालते हुए देख लिया।

मीना बहुत होशियार थी उसने कुछ देर सोचा फिर मटके के अंदर से एक पत्थर निकाला और गिरने का बहाना बना कर जमीन में गिर गयी और उस पत्थर को बाकी सभी पत्थर में मिला दिया। जमींदार और बलदेव सोचने लगे जो पत्थर मीना ने उठाया था वह कैसे पता चलेगा तो मीना बोली इसका पता हम मटके के अंदर के पत्थर से लगा सकते है।

मटके के अंदर पत्थर देखा तो उसका रंग काला था इसका मतलब मीना ने जो पत्थर उठाया और जो हाथ से गिर गया था उसका रंग सफ़ेद था। इस तरह मीना की होशियारी से बलदेव का कर्ज भी माफ़ हो गया और मीना को जमींदार से शादी भी नहीं करनी पड़ी ।

मीना ने समझदारी से काम लिया और जमीदार के चंगुल से खुद को बचा लिया ।


ढोला मारू की राजस्थानी प्रेमकथा

ढोला-मारू की राजस्थानी लोक-कथा

ढोला-मारू की राजस्थानी लोक-कथा

ढोला मारू

राजस्थान की लोक कथाओं में बहुत सी प्रेम कथाएँ प्रचलित है पर इन सबमे ढोला मारू प्रेम गाथा विशेष लोकप्रिय रही है इस गाथा की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आठवीं सदी की इस घटना का नायक ढोला राजस्थान में आज भी एक-प्रेमी नायक के रूप में स्मरण किया जाता है ।

लोककथाओं के अनुसार ढोला नरवर के राजा नल का पुत्र था जिसे इतिहास में ढोला के नाम से जाना जाता है, ढोला का विवाह बालपने में जांगलू देश ( वर्तमान बीकानेर ) के पूंगल नामक ठिकाने के स्वामी पंवार राजा पिंगल की पुत्री मारवणी के साथ हुआ था । उस वक्त ढोला तीन वर्ष का जबकि मारवणी मात्र डेढ़ वर्ष की थी । इसीलिए शादी के बाद मारवणी को ढोला के साथ नरवर नहीं भेजा गया । बड़े होने पर ढोला की एक और शादी हो गयी । बचपन में हुई शादी के बारे को ढोला भी लगभग भूल चूका था । उधर जब मारवणी जवान हुई तो मां बाप ने उसे ले जाने के लिए ढोला को नरवर कई सन्देश भेजे । ढोला की दूसरी रानी को ढोला की पहली शादी का पता चल गया था उसे यह भी पता चल गया था कि मारवणी जैसी बेहद खुबसुरत राजकुमारी कोई और नहीं सो उसने ईर्ष्या के चलते राजा पिंगल द्वारा भेजा कोई भी सन्देश ढोला तक पहुँचने ही नहीं दिया वह सन्देश वाहकों को ढोला तक पहुँचने से पहले ही मरवा डालती थी ।

उधर मारवणी के अंकुरित यौवन ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया । एक दिन उसे स्वप्न में अपने प्रियतम ढोला के दर्शन हुए उसके बाद तो वह ढोला के वियोग में जलती रही उसे न खाने में रुचि रही न किसी और कार्य में । उसकी हालत देख उसकी मां ने राजा पिंगल से ढोला को फिर से सन्देश भेजने का आग्रह किया, इस बार राजा पिंगल ने सोचा सन्देश वाहक को तो राणी मरवा डालती है इसीलिए इस बार क्यों न किसी चतुर भांड को नरवर भेजा जाये, जो गाने के बहाने ढोला तक सन्देश पहुंचा उसे मारवणी के साथ हुई उसकी शादी की याद दिला दे ।

जब भांड नरवर के लिए रवाना हो रहा था तब मारवणी ने उसे अपने पास बुलाकर मारू राग में दोहे बनाकर दिए और समझाया कि कैसे ढोला के सम्मुख जाकर गाकर सुनाना है । भांड ने मारवणी को वचन दिया कि वह जीता रहा तो ढोला को जरूर लेकर आएगा और मर गया तो वहीं का होकर रह जायेगा ।

चतुर भांड याचक बनकर किसी तरह नरवर में ढोला के महल तक पहुँचने में कामयाब हो गया और रात होते ही उसने ऊँची आवाज में गाना शुरू किया । उस रात बादल छा रहे थे, अँधेरी रात में बिजलियाँ चमक रही थी । झीणी - झीणी पड़ती वर्षा की फुहारों के शांत वातावरण में भांड ने मल्हार राग में गाना शुरू किया ऐसे सुहाने मौसम में भांड की मल्हार राग का मधुर संगीत ढोला के कानों में गूंजने लगा और ढोला फन उठाये नाग की भांति राग पर झुमने लगा तब भांड ने साफ़ शब्दों में गाया -

"ढोला नरवर सेरियाँ, मारूवणी पूंगल गढ़माही ।"

गीत में पूंगल व मारवणी का नाम सुनते ही ढोला चौंका और उसे बालपने में हुई शादी की याद ताजा हो आई । भांड ने तो मल्हार व मारू राग में मारवणी के रूप का वर्णन ऐसे किया जैसे पुस्तक खोलकर सामने कर दी हो । उसे सुनकर ढोला तड़फ उठा ।

भांड पूरी रात गाता रहा । सुबह ढोला ने उसे बुलाकर पूछा तो उसने पूंगल से लाया मारवणी का पूरा संदेशा सुनाते हुए बताया कि कैसे मारवणी उसके वियोग में जल रही है ।

आखिर ढोला ने मारवणी को लाने हेतु पूंगल जाने का निश्चय किया पर उसकी दूसरी रानी ने उसे रोक दिया । ढोला ने कई बहाने बनाये पर राणी उसे किसी तरह रोक देती । पर एक दिन ढोला एक बहुत तेज चलने वाले ऊंट पर सवार होकर मारवणी को लेने चल ही दिया और पूंगल पहुँच गया ।

मारूवणी ढोला से मिलकर ख़ुशी से झूम उठी । दोनों ने पूंगल में कई दिन बिताये और एक दिन ढोला ने मारवणी को अपने साथ ऊंट पर बिठा नरवर जाने के लिए राजा पिंगल से विदा ली । कहते है रास्ते में रेगिस्तान में मारूवणी को सांप ने काट खाया पर शिव पार्वती ने आकर मारूवणी को जीवन दान दे दिया । आगे बढ़ने पर ढोला उमर-सुमरा के षड्यंत्र में फंस गया, उमर-सुमरा ढोला को घात से मार कर मारूवणी को हासिल करना चाहता था सो वह उसके रास्ते में जाजम बिछा महफ़िल जमाकर बैठ गया । ढोला जब उधर से गुजरा तो उमर ने उससे मनुहार की और ढोला को रोक लिया । ढोला ने मारूवणी को ऊंट पर बैठे रहने दिया और खुद उमर के साथ अमल की मनुहार लेने बैठ गया । भांड गा रहा था और ढोला उमर अफीम की मनुहार ले रहे थे उमर सुमरा के षड्यंत्र का ज्ञान भांड की पत्नी को था वह भी पूंगल की बेटी थी सो उसने चुपके से इस षड्यंत्र के बारे में मारूवणी को बता दिया ।

मारूवणी ने ऊंट के एड मारी, ऊंट भागने लगा तो उसे रोकने के लिए ढोला दौड़ा, पास आते ही मारूवणी ने कहा - धोखा है जल्दी ऊंट पर चढो और ढोला उछलकर ऊंट पर चढ़ा गया । उमर-सुमरा ने घोड़े पर बैठ पीछा किया पर ढोला का वह काला ऊंट उसके कहाँ हाथ लगने वाला था । ढोला मारूवणी को लेकर नरवर पहुँच गया और उमर-सुमरा हाथ मलता रह गया ।

नरवर पहुंचकर ढोला मारुवणी के साथ आनंद से रहने लगा ।

किसान की होशियार बेटी राजस्थानी लोककथा

चार बुद्धिमान भाई राजस्थानी लोककथा

चार बुद्धिमान भाई राजस्थानी लोककथा


एक नगर में चार भाई रहते थे । चारों ही भाई अक्ल के मामले में एक से बढ़कर एक थे । उनकी अक्ल के चर्चे आस-पास के गांवों व नगरों में फैले थे, उनमें से एक भाई का नाम सौ बुद्धि, दूजे का नाम हजार बुद्धि, तीसरे का नाम लाख बुद्धि, तो चौथे भाई का नाम करोड़ बुद्धि था ।

एक दिन चारों ने आपस में सलाह कर किसी बड़े राज्य की राजधानी में कमाने जाने का निर्णय किया । क्योंकि दूसरे बड़े नगर में जाकर अपनी बुद्धि से कमायेंगे तो उनकी बुद्धि की भी परीक्षा होगी और यह भी पता चलेगा कि हम कितने अक्लमंद है ? इस तरह चारों ने आपस में विचार विमर्श कर किसी बड़े शहर को जाने के लिए घोड़े तैयार कर चल पड़ते है ।

काफी रास्ता तय करने के बाद वे चले जा रहे थे कि अचानक उनकी नजर रास्ते में उनसे पहले गए किसी ऊंट के पैरों के निशानों पर पड़ी,

" ये जो पैरों के निशान दिख रहे है वे ऊंट के नहीं ऊँटनी के है ।" सौ बुद्धि निशान देख अपने भाइयों से बोला

" तुमने बिल्कुल सही कहा, ये ऊँटनी के ही पैरों के निशान है और ये ऊँटनी बायीं आँख से काणि भी है ।" हजार बुद्धि ने आगे कहा

लाख बुद्धि बोला " तुम दोनों सही हो, पर एक बात मैं बताऊँ ? इस ऊँटनी पर जो दो लोग सवार है उनमें एक मर्द व दूसरी औरत है ।“

करोड़ बुद्धि कहने लगा " तुम तीनों का अंदाजा सही है, और ऊँटनी पर जो औरत सवार है वह गर्भवती है ।"


अब चारों भाइयों ने ऊंट के उन पैरों के निशानों व आस-पास की जगह का निरीक्षण कर व देखकर अपनी बुद्धि लगा अंदाजा तो लगा लिया पर यह अंदाजा सही लगा या नहीं इसे जांचने के लिए आपस में चर्चा कर ऊंट के पैरों के पीछे-पीछे अपने घोड़ों को दौड़ा दिए, ताकि ऊंट सवार का पीछा कर उस तक पहुँच अपनी बुद्धि से लगाये अंदाजे की जाँच कर सके ।

थोड़ी ही देर में वे ऊंट सवार के आस-पास पहुँच गए । ऊंट सवार अपना पीछा करते चार घुड़सवार देख घबरा गया कहीं डाकू या बदमाश नहीं हो, सो उसने भी अपने ऊंट को दौड़ा दिया ।

ऊंट सवार अपने ऊंट को दौड़ाता हुआ आगे एक नगर में प्रवेश कर गया । चारों भाई भी उसके पीछे पीछे ही थ । नगर में जाते ही ऊंट सवार ने नगर कोतवाल से शिकायत की " मेरे पीछे चार घुड़सवार पड़े है कृपया मेरी व मेरी पत्नी की उनसे रक्षा करें ।"

पीछे आते चारों भाइयों को नगर कोतवाल ने रोक पूछताछ शुरू कर दी कि कही कोई लुटेरे तो नहीं ? पूछताछ में चारों भाइयों ने बताया कि वे तो नौकरी तलाशने घर से निकले है यदि इस नगर में कही कोई रोजगार मिल जाए तो यही कर लेंगे । कोतवाल ने चारों के हावभाव व उनका व्यक्तित्व देख सोचा ऐसे व्यक्ति तो अपने राज्य के राजा के काम के हो सकते है सो वह उन चारों भाइयों को राजा के पास ले आया, साथ उनके बारे में जानकारी देते हुए कोतवाल ने उनके द्वारा ऊंट सवार का पीछा करने वाली बात बताई ।

राजा ने अपने राज्य में कर्मचारियों की कमी के चलते अच्छे लोगों की भर्ती की जरुरत भी बताई पर साथ ही उनसे उस ऊंट सवार का पीछा करने का कारण भी पुछा

सबसे पहले सौ बुद्ध बोला " महाराज ! जैसे हम चारों भाइयों ने उस ऊंट के पैरों के निशान देखे अपनी-अपनी अक्ल लगाकर अंदाजा लगाया कि- ये पैर के निशान ऊँटनी के होने चाहिए, ऊँटनी बायीं आँख से काणि होनी चाहिए, ऊँटनी पर दो व्यक्ति सवार जिनमें एक मर्द दूसरी औरत होनी चाहिए और वो सवार स्त्री गर्भवती होनी चाहिए ।"

इतना सुनने के बाद तो राजा भी आगे सुनने को बड़ा उत्सुक हुआ, और उसने तुरंत ऊंट सवार को बुलाकर पुछा " तूं कहाँ से आ रहा था और किसके साथ ?"

ऊंट सवार कहने लगा " हे अन्नदाता ! मैं तो अपनी गर्भवती घरवाली को लेने अपनी ससुराल गया था वही से उसे लेकर आ रहा था ।"

राजा " अच्छा बता क्या तेरी ऊँटनी बायीं आँख से काणी है ?"

ऊंट सवार " हां ! अन्नदाता, मेरी ऊँटनी बायीं आँख से काणी है ।“

राजा ने अचंभित होते हुए चारों भाइयों से पुछा " आपने कैसे अंदाजा लगाया ? विस्तार से सही सही बताएं ।"

सौ बुद्धि बोला " उस पैरों के निशान के साथ मूत्र देख उसे व उसकी गंध पहचान मैंने अंदाजा लगाया कि ये ऊंट मादा है ।"

हजार बुद्धि बोला " रास्ते में दाहिनी और जो पेड़ पौधे थे ये ऊँटनी उन्हें खाते हुई चली थी पर बायीं और उसने किसी भी पेड़-पौधे की पत्तियों पर मुंह तक नहीं मारा, इसलिए मैंने अंदाजा लगाया कि जरुर यह बायीं आँख से काणी है इसलिए उसने बायीं और के पेड़-पौधे देखे ही नहीं तो खाती कैसे ?"

लाख बुद्धि बोला " ये ऊँटनी सवार एक जगह उतरे थे अतः: इनके पैरों के निशानों से पता चला कि ये दो जने है और पैरों के निशान भी बता रहे थे कि एक मर्द के है व दूसरे स्त्री के |"

आखिर में करोड़ बुद्धि बोला-" औरत के जो पैरों के निशान थे उनमें एक भारी पड़ा दिखाई दिया तो मैंने सहज ही अनुमान लगा लिया कि हो न हो ये औरत गर्भवती है ।"

राजा ने उनकी अक्ल पहचान उन्हें अच्छे वेतन पर अपने दरबार में नौकरी देते हुए फिर पुछा -

" आप लोगों में और क्या क्या गुण व प्रतिभा है ?"

सौ बुद्धि बोला " मैं जिस जगह को चुनकर तय कर बैठ जाऊं तो किसी द्वारा कैसे भी उठाने की कोशिश करने पर नहीं उठूँ ।"

हजार बुद्धि " मुझमे भोज्य सामग्री को पहचानने की बहुत बढ़िया प्रतिभा है ।"

लाख बुद्धि " मुझे बिस्तरों की बहुत बढ़िया पहचान है ।"

करोड़ बुद्धि " मैं किसी भी रूठे व्यक्ति को चुटकियों में मनाकर ला सकता हूँ ।"

राजा ने मन ही मन एक दिन उनकी परीक्षा लेने की सोची । एक दिन सभी लोग महल में एक जगह एक बहुत बड़ी दरी पर बैठे थे, साथ में चारों अक्ल बहादुर भाई भी,  राजा ने हुक्म दिया कि “ इस दरी को एक बार उठाकर झाड़ा जाय, दरी उठने लगी तो सभी लोग उठकर दरी से दूर हो गए पर सौ बुद्धि दरी पर ऐसी जगह बैठा था कि वह अपने नीचे से दरी खिसकाकर बिना उठे ही दरी को अलग कर सकता था सो उसने दरी का पल्ला अपने नीचे से खिसकाया और बैठा रहा । राजा समझ गया कि ये उठने वाला नहीं ।


शाम को राजा ने भोजन पर चारों भाइयों को आमंत्रित किया और भोजन करने के बाद चारों भाइयों से भोजन की क्वालिटी के बारे में पुछा ।

तीन भाइयों ने भोजन के स्वाद उसकी गुणवत्ता की बहुत सरहना की पर हजार बुद्धि बोला " माफ़ करें हुजूर ! खाने में चावल में गाय के मूत्र की बदबू थी ।"

राजा ने रसोईघर के मुखिया से पुछा " सच सच बता कि चावल में गौमूत्र की बदबू कैसे ?”

रसोई घर का हेड कहने लगा " गांवों से चावल लाते समय रास्ते में वर्षा आ गयी थी सो भीगने से बचाने को एक पशुपालन के बाड़े में गाडियां खड़ी करवाई थी, वहीं चावल पर एक गाय ने मूत्र कर दिया था, हुजूर मैंने चावल को बहुत धुलवाया भी पर कहीं से थोड़ी बदबू रह ही गयी ।"


हजार बुद्धि की भोजन पारखी प्रतिभा से राजा बहुत खुश हुआ और रात्रि को सोते समय चारों भाइयों के लिए गद्दे राजमहल से भिजवा दिए । जिन पर चारों भाइयों ने रात्रि विश्राम किया ।

सुबह राजा के आते ही लाख बुद्धि ने कहा " बिस्तर में खरगोश की पुंछ है जो रातभर मेरे शरीर में चुभती रही ।"

राजा ने बिस्तर फड़वाकर जांच करवाई तो उसने वाकई खरगोश की पुंछ निकली, राजा लाख बुद्धि के कौशल से भी बड़ा प्रभावित हुआ ।


पर अभी करोड़ बुद्धि की परीक्षा बाकी थी, सो राजा ने रानी को बुलाकर कहा " करोड़ बुद्धि की परीक्षा लेनी है आप रूठकर शहर से बाहर बगीचे में जाकर बैठ जाएं करोड़ बुद्धि आपको मनाने आयेगा पर किसी भी सूरत में मानियेगा मत ।"

और रानी रूठकर बाग में जा बैठी, राजा ने करोड़ बुद्धि को बुला रानी को मनाने के लिए कहा ।

करोड़ बुद्धि बाजार गया वहां से पड़ले का सामान व दुल्हे के लिए लगायी जाने वाली हल्दी व अन्य शादी का सामान ख़रीदा और बाग के पास से गुजरा वहां रानी को देखकर उससे मिलने गया ।

रानी ने पुछा " ये शादी का सामान कहाँ ले जा रहे है ।"

करोड़ बुद्धि बोला " आज राजा जी दूसरा ब्याह रचा रहे है यह सामान उसी के लिए है, राजमहल ले कर जा रहा हूँ ।“

रानी ने पुछा " क्या सच में राजा दूसरी शादी कर रहे है ?"

करोड़ बुद्धि " सही में ऐसा ही हो रहा है तभी तो आपको राजमहल से दूर बाग में भेज दिया गया है ।"

इतना सुन राणी घबरा गयी कि कहीं वास्तव में ऐसा ही ना हो रहा हो, और वह तुरंत अपना रथ तैयार करवा करोड़ बुद्धि के आगे आगे महल की ओर चल दी ।

महल में पहुँच करोड़ बुद्धि ने राजा को अभिवादन कर कहा " महाराज ! राणी को मना लाया हूँ ।"

राजा ने देखा रानी सीधे रथ से उतर गुस्से में भरी उसकी और ही आ रही थी, और आते ही राजा से लड़ने लगी कि " आप तो मुझे धोखा दे रहे थे, पर मेरे जीते जी आप दूसरा ब्याह नहीं कर सकते ।"

राजा भी राणी को अपनी सफाई देने में लग गया ।

और इस तरह चारों अक्ल बहादुर भाई राजा की परीक्षा में सफल रहे ।

चार आने का हिसाब हिंदी लोककथा

चार आने का हिसाब लोककथा

चार आने का हिसाब



बहुत समय पहले की बात है, चंदनपुर का राजा बड़ा प्रतापी था, दूर-दूर तक उसके राज्य की समृध्दि के चर्चे होते थे, उसके महल में हर एक सुख-सुविधा की वस्तु उपलब्ध थी पर फिर भी अंदर से उसका मन अशांत रहता था ।

उसने कई ज्योतिषियों और पंडितों से इसका कारण जानना चाहा, किसी ने उसे कोई अंगूठी पहनाई तो किसी ने यज्ञ कराए, पर फिर भी राजा का दुःख दूर नहीं हुआ, उसे शांति नहीं मिली ।

एक दिन भेष बदल कर राजा अपने राज्य की सैर पर निकला । घूमते-घूमते वह एक खेत के निकट से गुजरा, तभी उसकी नज़र एक किसान पर पड़ी, किसान ने फटे-पुराने वस्त्र धारण कर रखे थे और वह पेड़ की छाँव में बैठ कर भोजन कर रहा था ।

किसान के वस्त्र देख राजा के मन में आया कि वह किसान को कुछ स्वर्ण मुद्राएं दे दे ताकि उसके जीवन में कुछ खुशियां आ पाये ।

राजा ने किसान से कहा ” मैं एक राहगीर हूँ ! मुझे तुम्हारे खेत पर ये चार स्वर्ण मुद्राएँ गिरी मिलीं है, क्योंकि यह खेत तुम्हारा है इसलिए ये मुद्राएं तुम ही रख लो ।“

किसान ने गर्दन हिलाते हुए कहा ” ना – ना सेठ जी ! ये मुद्राएं मेरी नहीं हैं, इसे आप ही रखें या किसी और को दान कर दें, मुझे इनकी कोई आवश्यकता नहीं ।“

किसान की यह प्रतिक्रिया राजा को बड़ी अजीब लगी, वह बोला ” धन की आवश्यकता किसे नहीं होती भला आप लक्ष्मी को ना कैसे कर सकते हैं ?”

“ सेठ जी ! मैं रोज चार आने कमा लेता हूँ, और उतने में ही प्रसन्न रहता हूँ… !“, किसान बोला

“ क्या ? आप सिर्फ चार आने की कमाई करते हैं, और उतने में ही प्रसन्न रहते हैं, यह कैसे संभव है ?” , राजा ने अचरज से पुछा

” सेठ जी !” किसान बोला “ प्रसन्नता इस बात पर निर्भर नहीं करती की आप कितना कमाते हैं या आपके पास कितना धन है, प्रसन्नता उस धन के प्रयोग पर निर्भर करती है ।“

” तो तुम इन चार आने का क्या-क्या कर लेते हो ?” राजा ने उपहास के लहजे में प्रश्न किया

किसान भी बेकार की बहस में नहीं पड़ना चाहता था उसने आगे बढ़ते हुए उत्तर दिया ” इन चार आनो में से एक मैं कुएं में डाल देता हूँ, दूसरे से कर्ज चुका देता हूँ, तीसरा उधार में दे देता हूँ और चौथा मिट्टी में गाड़ देता हूँ ।”

राजा सोचने लगा, उसे यह उत्तर समझ नहीं आया । वह किसान से इसका अर्थ पूछना चाहता था, पर वो जा चुका था ।

राजा ने अगले दिन ही सभा बुलाई और पूरे दरबार में कल की घटना कह सुनाई और सबसे किसान के उस कथन का अर्थ पूछने लगा ।

दरबारियों ने अपने-अपने तर्क पेश किये पर कोई भी राजा को संतुष्ट नहीं कर पाया, अंत में किसान को ही दरबार में बुलाने का निर्णय लिया गया ।

बहुत खोज-बीन के बाद किसान मिला और उसे कल की सभा में प्रस्तुत होने का निर्देश दिया गया ।

राजा ने किसान को उस दिन अपने भेष बदल कर भ्रमण करने के बारे में बताया और सम्मान पूर्वक दरबार में बैठाया ।

” मैं तुम्हारे उत्तर से प्रभावित हूँ, और तुम्हारे चार आने का हिसाब जानना चाहता हूँ, बताओ, तुम अपने कमाए चार आने किस तरह खर्च करते हो जो तुम इतना प्रसन्न और संतुष्ट रह पाते हो ?” राजा ने प्रश्न किया

किसान बोला ” हुजूर ! जैसा की मैंने बताया था, मैं एक आना कुएं में डाल देता हूँ, यानी अपने परिवार के भरण-पोषण में लगा देता हूँ, दूसरे से मैं कर्ज चुकता हूँ, यानी इसे मैं अपने वृद्ध माँ-बाप की सेवा में लगा देता हूँ, तीसरा मैं उधार दे देता हूँ, यानी अपने बच्चों की शिक्षा-दीक्षा में लगा देता हूँ, और चौथा मैं मिट्टी में गाड़ देता हूँ, यानी मैं एक पैसे की बचत कर लेता हूँ ताकि समय आने पर मुझे किसी से माँगना ना पड़े और मैं इसे धार्मिक ,सामाजिक या अन्य आवश्यक कार्यों में लगा सकूँ ।“

राजा को अब किसान की बात समझ आ चुकी थी । राजा की समस्या का समाधान हो चुका था, वह जान चुका था की यदि उसे प्रसन्न एवं संतुष्ट रहना है तो उसे भी अपने अर्जित किये धन का सही-सही उपयोग करना होगा ।

मित्रों, देखा जाए तो पहले की अपेक्षा लोगों की आमदनी बढ़ी है पर क्या उसी अनुपात में हमारी प्रसन्नता भी बढ़ी है ? यकीनन नहीं !

पैसों के मामलों में हम कहीं न कहीं गलती कर रहे हैं , लाइफ को बैलेंस बनाना ज़रूरी है और इसके लिए हमें अपनी आमदनी और उसके इस्तेमाल पर ज़रूर गौर करना चाहिए, नहीं तो भले हम लाखों रुपये कमा लें पर फिर भी प्रसन्न एवं संतुष्ट नहीं रह पाएंगे !

राजस्थानी लोककथा भूत की मुसीबत

भोला भूत की मुसीबत

भूत की मुसीबत
भूत की मुसीबत राजस्थानी लोककथा


सालों पहले एक छोटे से गांव में एक गरीब पंडित अपनी पत्नी शारदा के साथ रहा करता थानाम तो जाने क्या था पर गांव वाले मोठू महाराज के नाम से पुकारा करते थे । मोठू शिवजी का परम भक्त था । वह रोजाना स्नान ध्यान करके पूजा करता, उसके बाद ही अन्न-जल ग्रहण करता था । अपनी पत्नी शारदा के साथ गांव में ही जजमानी का काम करके जीवन यापन किया करता था, गांव भी छोटा ही था और किस्मत की बात है कि वह कितनी भी मेहनत करता फिर भी उसे आज तक एक दिन भी भरपेट खाना नही मिला

परंतु आज पड़ोस के गांव के सरपंच रामधन चौधरी के घर बेटा हुआ था और उसी खुशी में चौधरी साहब ने गांव भर में भोजन का न्योता दे दिया और पूरे गांव में मुनादी करवा दी कि कल किसी के यहां चूल्हा नहीं जलेगा, सभी चौधरी साहब की कोठी पर भोजन करेंगे ।

यह सुनते ही मोठु महाराज की खुशी का ठिकाना नहीं रहा, उसने शारदा से कहा कि “ वह जरूर जाएगा, और पहली बार भरपेट भोजन करेगा ।“ लेकिन साथ ही उसी अपनी गरीबी याद आई और शारदा से बोला “ न तो उसके पास कोठी पर जाने लायक कपड़े है और न ही बच्चे को देने के लिए लिए उपहार !”

शारदा ने तुरन्त मोठु महाराज के पुराने कपड़े सील दिए और साफ पानी से धो दिए, फिर मोठु से बोली “ मैंने आपके कपड़े धो डाले है, आप उन्हें पहनकर अच्छे से जाईये, चौधरी साहब बडे आदमी है, उन्हें बच्चे के लिए आपका आशीर्वाद ही चाहिए ।“

रात भर मोठु महाराज स्वादिष्ट भोजन के सपने देखे और दूसरे दिन सुबह जल्दी उठकर नहाया और शिवजी की पूजा की, थोड़ा गुड़ खाया और पानी पीकर, चौधरी साहब की कोठी की ओर चल पड़ा ।

मोठु महाराज को कोठी तक पहुंचने में शाम हो गई, कोठी में चारों तरफ स्वादिष्ट खाने की खुशबू फैली हुई थी कोठी में लोगों की भीड़ लगी हुई थी बडी मुश्किल से मोठु महाराज को खाने की जगह मिली, परंतु जहां जगह मिली वहां ऊपर दही की हांडी लटकी हुई थी । मोठु महाराज ने सोचा “ मुझे कौनसा खड़ा होकर खाना है ?”

मोठु महाराज ने खाना शुरू कर दिया, इससे बढ़िया खाने की वह कल्पना भी नहीं कर सकता था । अभी वह खाने का आंनद ले ही रहा था कि किसी आते जाते का सिर दही की हांडी से टकराया और हांडी टूटकर मोठु महाराज की पत्तल में आ गिरी, सारा खाना खराब हो गया । दुखी मन से वह उठा और पत्तल उठाकर चल दिया ।

मोठु दुखी मन से घर की ओर जा रहा था, रास्ते में चौधरी साहब ने मोठु को देखकर पूंछा “ मोठु महाराज ! खाना ठीक से खाया ना ?”

मोठु ने पूरा वाकया चौधरी साहब को कह सुनाया, जिसे सुनकर चौधरी साहब मुस्कुराये और मोठु महाराज से रात यहीं रुकने का अनुरोध किया और कहा कि कल वे अपनी निगरानी में भोजन बनवायेंगे और उन्हें भरपेट भोजन करवायेंगे ।

मोठु इसके लिए राजी हो गया और रात भर यही सोचता रहा कि सुबह एक बार फिर स्वादिष्ट खाना खाने को मिलेगा । उसने तय किया कि चाहे कुछ भी हो जाये इस बार तो पूरा पेट भरकर खाना खाऊंगा ।

यही सोचते हुए सुबह उठा और नाहा धोकर पूजा अर्चना की और खाना खाने के लिए तैयार हो गया इधर चौधरी साहब ने अपनी देखरेख में भोजन तैयार करवाया और मोठु महाराज को परोस दिया

मोठु महाराज अपने आप को काफी भाग्यशाली महसूस कर रहे थे, क्योंकि आज वो खास मेहमान थे और इतना स्वादिष्ट भोजन केवल उनके लिए बना था । खूब जमकर खाना खाया जा रहा था, जिंदगी में पहली बार उनका पेट तो भर गया पर मन नहीं भरा । खाना और बातें चल ही रही थी ।

इधर चौधरी जी की कोठी के बाहर चौक में पीपल के वृक्ष पर भोला भूत अपनी पत्नी और बेटे के साथ रहता था, भोला बडा शैतान भूत था, उसने मोठु महाराज को काफी देर से खाना खाते देखा तो एक शरारत सूझी । उसने खुद को एक मेंढक में बदला और मोठु महाराज को डराने के लिए पत्तल में रखी दाल में कूद गया ।

इधर मोठु बातों और स्वादिष्ट खाने में इतना मग्न था कि उसे मेंढक के कूदने का पता ही नहीं चला और मेंढक को दाल के साथ पेट में निगल गया । भरपेट भोजन से तृप्त हो कर, और चौधरी साहब से दान दक्षिणा लेकर मोठु खुशी खुशी घर को निकल गया ।

इधर मेंढक बने भोला भूत ने मोठु के पेट में कूद फांद की, बेचारे मोठु ने सोचाजिंदगी में पहली बार भरपेट भोजन किया है इसलिए पेट में अगड़म-बगड़म हो रही है ।“ जब मोठु को कोई फर्क नहीं पड़ा तो भोला भूत ने पेट में गुदगुदी करना शुरू किया । मोठु ने हँसते हुए शिवजी को धन्यवाद दिया कि भगवान बडे दिनों बाद हँसाया ।

इधर भोला भूत परेशान हो गयाये क्या हो रहा है ? मैंने इसके पेट में इतनी उछल कूद की, गुदगुदी की पर इसे कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा ? तो यहां मेरा क्या काम ? उसने सोचा अब मुझे चलना चाहिए ।

परेशान भोला भूत ने आवाज लगाईमुझे जाने दो मोठु ने सोचा पीछे से कोई आवाज दे रहा होगा, जब कोई दिखाई नहीं दिया तो आगे बढ़ गया । कुछ देर बाद भूत थोड़ा जोर से बोला “ मुझे जाने दो “ इस बार मोठु डर गया और शिवजी को याद करके भागने लगा ।

इस पर भूत जोर से बोला “ महाराज ! मैं भोला भूत हूँ, और मैं आपके पेट में हूँ । गलती से चला गया, अब बाहर निकलना चाहता हूँ ।“ यह सुनकर मोठु महाराज की घिग्गी बंध गई और घबराकर भागने लगे, इससे पेट में भूत की सांसें भी फूलने लगी, गांव के नजदीक पहुंचकर मोठु का डर थोड़ा कम हुआ तो उसे भोला भूत पर बडा गुस्सा आया और बड़बड़ाते हुए बोला “ तुम मेरे पेट में गये क्यों ? अब परेशान हो रहे हो तो मुझे क्या ?”

घर पहुंचकर शारदा को बुलाया और कहा “ मेरा हुक्का गर्म करके लाओ, अभी इसे सबक सिखाता हूँ !” देखते ही देखते हुक्का आ गया और मोठु ने हुक्के को जोर से गुड़गुडाया और धुंए का कश लिया । दो तीन गुड़गुड़ाहट के बाद धुंआ भूत की आँखों और नाक में घुस गया, पेट में भूत का खासते खासते बुरा हाल हो गया, आँखों से लगातार आसुँ निकल रहे थे, अब भोला भूत अपनी शरारत पर पछता रहा था ।

इधर जब काफी देर तक भोला भूत वापस नहीं लौटा तो उसकी पत्नी और बेटा परेशान हो गए और भूतनी ने एक लड़की का रूप बनाया और मोठु महाराज के घर पहुंची मोठु महाराज से हाथ जोडकर अपने पति की गलती की माफी मांगी और आजादी की गुहार लगाई ।

भूतनी को देखते ही मोठु का गुस्सा भड़क गया और पास ही रखा डंडा जोर से जमीन पर पटका और भूतनी की तरफ मारने दौड़ा “ उस समय कहाँ थी ? जब तुम्हारा पति मेरे पेट में गया ! मेरा धर्म भ्रष्ट कर दिया और जब से पेट में गया है मुझे परेशान कर रहा है । मैंने तो ये डंडा रखा ही इसीलिए है कि इसने जरा सा निकलने की कोशिश की तो डंडे से मार मारकर भुर्ता बना दूँगा । अब तुम यहाँ से भाग जाओ नहीं तो तुम्हारा भी यही हाल करूँगा । बडी आई भूत की वकालात करने, मेरे पेट में मुझे पूँछकर गया था ?”

बेचारी भूतनी अपना सा मुह लेकर लौट गई ।

माँ को अकेले देखकर बेटा समझ गया कि पिताजी को लाने में मां को कामयाबी नहीं मिली । छोटे भूत ने मां से कहां “ मां ! आप रुको इस बार मैं पिताजी को लेने जाता हूँ ।

छोटे भूत ने एक मासमू बच्चे का रूप बनाया और मोठु के घर पहुंचा, उसने हाथ जोड़कर मोठु से विनती की “ मेरे पिताजी को छोड़ दो । बच्चे को देखकर भी मोठु का गुस्सा शांत नहीं हुआ, उसने फिर अपना डंडा उठाया और बच्चे की तरफ भागाछोटा भूत तो सरपट भाग गया, पर पेट में भोला भूत को अपनी शैतानी पर बहुत गुस्सा और शर्म रही थी

जब छोटे भूत ने देखा कि इस तरह उसकी दाल नहीं गल रही है तो उसने एक उपाय सोचा और उसने ख़ुद को एक मच्छर के रूप में ढाला और पहुंच गया फिर मोठु के पास ।

अब छोटे भूत ने भी शरारत शुरू कर दी । कभी मोठु के गाल को काटता तो कभी नाक पर, मोठु उसे भगाने के लिए कभी अपने नाक पर तो कभी मुंह पर थप्पड़ मार लेता था । कभी मच्छर उसके सिर के आसपास, कभी उसके कान में घूं-घूं । मोठु जितना झल्लाता, मच्छर बना छोटा भूत उतना ही ज्यादा परेशान करता इसी तरह थोड़ी देर बाद मच्छर मोठु की नाक में घुस गया । अब तो मोठु की नाक में सुरसुरी- घुरघुरी सब होने लगी ।

आ... छीं... आ... छीं... करते-करते मोठु का बुरा हाल हो गया । इस बार छींक इतनी तेज़ थी, कि पेट मेंढक वाला भोला भूत मुंह के रास्ते बाहर कूद गया और बिना पीछे देखे छोटे भूत के साथ सरपट दौड़ लगा दी और पीपल के वृक्ष पर पहुंचकर सांस ली, और भविष्य में इस तरह की शरारत करने की कसम खा ली इधर मोठु महाराज ने भी चैन की सांस ली और गहरी नींद में खो गए

तो नमस्कार दोस्तों यह राजस्थानी लोककथा आपको कैसी लगी कमेंट करें ।


लिछमा बाई रो मायरो ( राजस्थानी लोककथा )