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चित्तौड़गढ़ के किले का इतिहास

चित्तौड़गढ़ के किले का इतिहास

चित्तौड़गढ़ दुर्ग

चित्तौड़गढ़ किले का निर्माण मौर्य वंश के राजा चित्रांगद मौर्य ने सातवीं शताब्दी में करवाया था । चित्तौड़गढ़ किला राज्य का सबसे प्राचीनतम दुर्ग है । इसका निर्माण चित्रकूट नामक पहाडी पर किया गया है ।
चित्तौड़गढ़ दुर्ग अपने सात विशालकाय मुख्य द्वारों के लिए भी प्रसिद्ध है, जो ऊपर चढ़ते समय एक के बाद एक आते हैं, प्रथम द्वार का नाम पाण्डुपोल, दूसरा द्वार भैरवपोल, तीसरा द्वार गणेशपोल, चौथा द्वार लक्ष्मणपोल, पाँचवाँ द्वार जोड़नपोल, छठा द्वार त्रिपोलिया तथा सातवां और आखिरी द्वार रामपोल है ।

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चित्तौड़गढ़ किले के बारे में प्रचलित कहावत है कि " गढ़ तो चित्तौड़गढ़ बाकी सब गढैया ।"

मुख्य इमारतें जो चित्तौड़गढ़ किले में स्थित है ।

कुम्भलगढ किले का ड्रोन वीडियो

विजय स्तम्भ :- 

विजय स्तम्भ

महाराणा कुम्भा ने महमूद खिलजी के नेतृत्व वाली मालवा और गुजरात की सेनाओं पर विजय के स्मारक के रूप में सन् 1440-1448 के मध्य इसका निर्माण करवाया था, इसीलिए इसका नाम विजय स्तम्भ रखा गया, इसका वास्तुकार जैता था, इसमें पत्थर पर उकेरी गई हिन्दू देवी देवताओं की मूर्तियों के कारण इसे हिन्दू देवी देवताओं का अजायबघर भी कहा जाता है । 9 मंजिला विजय स्तम्भ की ऊंचाई 120 फिट है । अंदर की ओर बनी हुई गोलाकार सीढ़ियों से आप ऊपर तक जा सकते हैं ।
कीर्ति स्तम्भ :- 

कीर्ति स्तम्भ का निर्माण भगेरवाल जैन व्यापारी जीजा ने बारहवीं शताब्दी में करवाया था । यह स्मारक जैन सम्प्रदाय के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ को समर्पित है । एक बार बिजली गिरने के कारण कीर्ति स्तम्भ क्षतिग्रस्त हो गया था और स्तंभ के शीर्ष की छत्री खंडित हो गई थी जिसे चित्तौड़गढ़ के तत्कालीन महाराणा फ़तेहसिंह जी ने दुरुस्त करवाया था ।
रानी पद्मिनी का महल :- 

किले में स्थित रानी पद्मिनी महल रानी पद्मिनी के साहस और शान की कहानी सुनाता है । महल के पास ही सुंदर कमल का एक तालाब है । यही वह स्थान है जहाँ सुलतान अलाउद्दीन खिलजी ने रानी पद्मिनी के प्रतिबिम्ब की एक झलक देखी थी । रानी के शाश्वत सौंदर्य से सुलतान अभिभूत हो गया और उसकी रानी को पाने की इच्छा के कारण अंततः युद्ध हुआ ।

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चित्तौड़गढ़ किले पर अधिकार :- 

सातवीं शताब्दी में निर्माण के पश्चात सन् 738 में गुहिल वंश के वास्तविक संस्थापक बप्पा रावल ने मौर्यवंश के अंतिम शासक मानमोरी को हराकर यह किला अपने अधिकार में कर लिया, तत्पश्चात मालवा के परमार राजा मुंज ने इसे गुहिलवंशियों से छीनकर अपने राज्य में मिला लिया और 9 वीं से 10 वीं शताब्दी तक परमारों का आधिपत्य रहा ।
सन् 1133 में गुजरात के सोलंकी राजा जयसिंह ने परमार राजा यशोवर्मन को हराकर मालवा के साथ चित्तौड़गढ़ का दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया । सोलंकी राजा अजयपाल को परास्त राजा सामंत सिंह ने सन 1174 में पुनः चित्तौड़गढ़ किले पर गुहिलवंशियों का आधिपत्य स्थापित कर दिया ।
चित्तौड़गढ़ दुर्ग में तीन साके 1303, 1534, 1567-68 में हुए हैं ।

प्रथम साका :- 

सन् 1303 में महाराणा रत्नसिंह की अलाउद्दीन खिलजी से लड़ाई हुई । युद्ध में अलाउद्दीन खिलजी की विजय हुई, इसी समय चित्तौड़गढ़ किले का प्रथम शाका हुआ । अलाउद्दीन ने चित्तौड़गढ़ का किला अपने पुत्र खिज्र खाँ को सौंप दिया जिसने वापसी पर चित्तौड़ का राजकाज कान्हादेव के भाई मालदेव को सौंपा ।
सिसोदिया राजवंश के संस्थापक राणा हम्मीर ने मालदेव से यह किला छीन लिया । हमीर ने अपनी सूझबूझ और योग्यता से शासन करते हुए राज्य का विस्तार किया और चित्तौड़ का गौरव पुनः स्थापित किया ।

द्वितीय साका :- 

यह 1534 ईस्वी में राणा विक्रमादित्य के शासनकाल में गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह के आक्रमण के समय हुआ था। इसमें रानी कर्मवती के नेतृत्व में स्त्रियों ने जौहर किया ।

तृतीय साका :- 

यह 1567 में राणा उदयसिंह के शासनकाल में अकबर के आक्रमण के समय हुआ, जिसमें जयमल और पत्ता के नेतृत्व में चित्तौड़गढ़ की सेना ने मुगल सेना का जमकर मुकाबला किया और स्त्रियों ने जौहर किया था ।

CHITTORGARH


चित्तौड़गढ़ दुर्ग के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें

1. चित्तौड़गढ़ दुर्ग में विजय स्तम्भ, कुम्भा स्वामी मंदिर, कुम्भा के महल, श्रृंगार चंवरी मंदिर, चार दिवारी और सातों द्वारों का निर्माण महाराणा कुम्भा ने करवाया था ।
2. चित्तौड़गढ़ दुर्ग में स्थित जयमल की हवेली का निर्माण महाराजा उदयसिंह ने करवाया था ।
3. भैरव पोल के पास ही वीर कल्ला राठौड़ की छतरी स्थित है ।
4. इस दुर्ग को सभी किलों का सिरमौर कहा जाता है ।
5. चित्तौड़गढ़ दुर्ग गंभीरी और बेड़च नदियों के संगम पर स्थित है ।
6. चित्तौड़गढ़ दुर्ग की समुद्र तल से ऊँचाई लगभग 1850 फीट है ।
7. चित्तौड़गढ़ की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त होने वाले जयमल और पत्ता की बहादुरी से खुश होकर अकबर ने आगरा के किले के प्रवेश द्वार पर इनकी हाथी पर सवार संगमरमर की प्रतिमाएं स्थापित करवाई ।
8. इस दुर्ग में प्रमुख जल स्त्रोत भीमलत कुंड, रामकुंड व चित्रांगद मोरी तालाब है ।
9. इस दुर्ग में खेती भी की जाती है ।
10. यह राज्य का सबसे बडा दुर्ग है ।
11. माना जाता है कि भीम ने महाभारत काल में अपने घुटने के बल से यहाँ पानी निकाला था ।

पांडुपोल

चित्तौड़गढ़ ! वीरों को पैदा करने वाली वह भूमि है जिसने समूचे भारत के सम्मुख शौर्य, देशभक्ति एवम् बलिदान का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया । यहाँ के असंख्य वीरों ने अपने देश तथा धर्म की रक्षा के लिए प्राणों का बलिदान दिया । यहाँ का कण-कण हमारे शरीर में देशप्रेम की ऊर्जा पैदा करता है । इस वीर प्रसूता भूमि को बार बार नमन । 🙏🙏


महाराणा प्रताप की जीवनी व इतिहास

महाराणा प्रताप की जीवनी व इतिहास
महाराणा प्रताप की जीवनी
जन्म
महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 के शुभ दिन महाराणा सांगा के पुत्र उदयसिंह एवं महारानी जयवंता बाई के यहाँ राजसमंद जिले में स्थित कुम्भलगढ़ दुर्ग में हुआ । हालांकि इतिहासकारों में जन्म स्थान को लेकर मतभेद है, इतिहासकार जेम्स टॉड के अनुसार महाराणा प्रताप सिंह का जन्म मेवाड़ के कुम्भलगढ़ दुर्ग में हुआ, जबकि इतिहासकार विजय नाहर के मतानुसार बालक प्रताप का जन्म अपने नाना सोनगरा अखैराज के राजमहलों में हुआ था । महाराणा प्रताप को बचपन में “ कीका “ नाम से बुलाया जाता था ।
28 फरवरी 1572 को पिता उदयसिंह की मृत्यु होने से पूर्व ही उन्होंने अपनी सबसे छोटी रानी धीरबाई ( राणी भटियाणी ) के पुत्र जगमाल सिंह को मेवाड़ का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया, जबकि जेष्ठ पुत्र होने के कारण प्रताप सिंह स्वाभाविक रूप से उत्तराधिकारी था । जगमाल सिंह विलासी प्रवर्ति का अयोग्य राजकुमार था इसलिए राज्य के अधिकतर सामंत जगमाल सिंह के बजाय प्रताप सिंह को महाराणा की गद्दी के लिए योग्य उम्मीदवार मानते थे ।
इधर जगमाल सिंह के हाथ में सत्ता आते ही उसके भोग विलास और जनता पर अत्याचार बढ़ने लगे । प्रताप सिंह ने भी छोटे भाई को समझने की कोशिश की परंतु सत्ता के अंधे जगमाल सिंह ने इसे अनदेखा कर दिया । जब जगमाल सिंह की अयोग्यता और अत्याचार हद से बढ़ने लगे तब विवश होकर मेवाड़ के समस्त सरदार एकत्र हुए और प्रताप सिंह को राजगद्दी पर आसीन करवाया । प्रताप सिंह का प्रथम राजतिलक 1 मार्च 1573 के दिन उदयपुर के नजदीक गोगुन्दा नामक गाँव में हुआ, और इसी दिन से प्रताप सिंह, महाराणा प्रताप नाम से जाना जाने लगा । महाराणा प्रताप का शारीरिक सौष्ठव ही उनके दुश्मनों के दिलों में भय पैदा करने में सक्षम था, महाराणा प्रताप साढ़े सात फिट लंबे थे और 110 किलो वजनी थे, युद्ध में जाते समय उनके साथ 80 किलोग्राम का भाला, 208 किलोग्राम की दो तलवारें और 72 किलोग्राम का लोहे का कवच होता था ।
महाराणा प्रताप का रीति रिवाजों के अनुसार द्वितीय राजतिलक कुम्भलगढ़ दुर्ग में किया गया । इधर प्रताप सिंह के राजगद्दी हथियाने के विरोध स्वरूप जगमाल सिंह ने अकबर से मित्रता गांठ ली ।
महाराणा प्रताप के राज्य की राजधानी उदयपुर थी । उन्होंने सन 1568 से 1597 तक शासन किया । उदयपुर पर विदेशी आक्रमणकारियों के संकट को देखते हुए और सामन्तों की सलाह मानकर महाराणा प्रताप ने उदयपुर छोड़कर कुम्भलगढ़ और गोगुंदा के पहाड़ी इलाके को अपना केन्द्र बनाया ।
 महाराणा प्रताप ने अपने जीवनकाल में कुल 16 शादियाँ की थी, जिनसे उनके 17 पुत्र और 5 पुत्रियाँ थी ।
1568 में मुगल सेना द्वारा चित्तौड़गढ़ किले की विकट घेराबंदी के कारण मेवाड़ की उपजाऊ पूर्वी बेल्ट अकबर के नियंत्रण में आ गई । हालाँकि जंगल और पहाड़ी इलाका अभी भी महाराणा के कब्जे में थे । मेवाड़ पर अकबर की नजर इसलिए भी थी क्योंकि वह मेवाड़ से होते हुए के गुजरात के लिए एक स्थिर तलाश कर रहा था ।
महाराणा प्रताप के शासनकाल के समय तक लगभग पूरे उत्तर भारत में मुगल बादशाह अकबर का साम्राज्य, जिसमें अकबर लगातार बढ़ोतरी कर रहा था । मेवाड़ साम्राज्य अकबर के साम्राज्य विस्तार की राह में रोड़ा बना हुआ था । इसके लिए अकबर ने महाराणा प्रताप को अधीनता स्वीकार करने के लिए चार बार प्रताव भेजे ( सितंबर 1572 में जलाल खाँ, मार्च 1573 में मानसिंह, सितंबर 1573 में भगवानदास, दिसंबर 1573 में टोडरमल ) । परंतु हर बार निराश हाथ लगी, महाराणा प्रताप ने मुगल बादशाह की अधीनता स्वीकार करने से लड़ते हुए मरना श्रेष्ठ माना । अकबर ने महाराण को व्यक्तिगत रूप से प्रस्तुत होने का संदेशा भिजवाया परंतु महाराणा ने इनकार कर दिया, तब युद्ध से ही मेवाड जीतना अकबर के लिए जरूरी हो गया था । जिसके परिणाम स्वरूप 18 जून 1576 को हल्दीघाटी का ऐतिहासिक युद्ध हुआ ।

हल्दीघाटी का युद्ध ( 18 जून 1576 )
हल्दीघाटी का युद्ध
18 जून 1576 को मुगल बादशाह के साम्राज्य विस्तार की नीति के फलस्वरूप हल्दीघाटी नामक दर्रे के नजदीक मेवाड़ की सेना ( जिसका सेनापति महाराणा प्रताप था ) और मुगलिया साम्राज्य की सेना ( मानसिंह और आसफ खान ) के बीच भीषण युद्ध हुआ । मेवाड़ की ओर से भील सेना के सरदार राणा पूंजा भील थे, जिन्होंने इस युद्ध में अद्भुत पराक्रम दिखाया । इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ने वाले एकमात्र मुस्लिम सरदार हकीम खाँ सूरी थे ।
हल्दीघाटी युद्ध में मेवाड़ की सेना में 20 हजार और मुगल सेना में 50 हजार सैनिक थे, फिर भी मेवाड़ के योद्धाओं ने मुगलों को नाकों चने चबवाये । महाराणा प्रताप ने इस युद्ध में अपनी युद्धकला और वीरता का परचम लहराया । जिस ओर उनका घोड़ा चेतक मुँह घुमा लेता उस तरफ दुश्मनों की लाशों के ढेर लग जाते । दुश्मन सेना के लिए महाराणा और चेतक यमराज और उसके भैसे की तरह दिखाई दे रहा था । इस पूरे युद्ध में मेवाड़ की सेना मुगलों पर भारी पड़ रही थी और उनकी रणनीति सफल हो रही थी । महाराणा ने हाथी पर सवार मुगलों के सेनापति मान सिंह पर चेतक से हमला किया । मानसिंह ने हाथी के ऊपर बने हौदे में छुपकर जान बचाई । इस हमले में चेतक को भी गहरी चोटें आई, चेतक युद्ध में महाराणा का अहम साथी था । यह देखकर मुगल सेना युद्ध छोड़कर केवल महाराणा प्रताप को पकड़ने पर आमाद दिखने लगी, तब बींदा के झाला मान ने महाराणा प्रताप का मुकुट स्वयं धारण कर अपने प्राणों का बलिदान दिया और महाराणा प्रताप को युद्धक्षेत्र से निकलकर उनके जीवन की रक्षा की । युद्धक्षेत्र से निकलते समय मुगल सेना ने महाराणा का पीछा किया और एक विशाल नाले को पार करने के पश्चात स्वामिभक्त चेतक की मृत्यु हो गई । इतिहासकारों के अनुसार यह युद्ध अनिर्णित रहा । अकबर ने अपनी विशाल सेना महाराणा प्रताप को जिंदा या मुर्दा लाने के उद्देश्य से भेजी थी, जिसमें वो नाकाम रहा । वहीं महाराणा प्रताप को भी मेवाड़, चित्तौड़, गोगुन्दा, कुम्भलगढ़, उदयपुर आदि इलाके छोड़ने पड़े ।
इस युद्ध का आँखों देखा वर्णन अब्दुल कादिर बदायूनी ने किया था ।
इस युद्ध के पश्चात महाराणा ने जंगलों में शरण ली और धीरे धीरे अपनी शक्ति बढ़ाने लगे । इस मुसीबत के वक्त पर उनके मित्र और विश्वासपात्र सलाहकार भामाशाह द्वारा महाराणा को अपना सम्पूर्ण धन अर्पित कर दिया गया ।
वह धन्य देश की माटी है, जिसमें भामा सा लाल पला। 
उस दानवीर की यश गाथा को, मेट सका क्या काल भला॥
इस सहयोग से महाराणा में नये उत्साह का संचार हुआ । अगले तीन वर्षों में महाराणा ने पुन: सैन्य शक्ति संगठित कर मुगलों से एक एक कर अधिकांश इलाके छीन लिये । 
हल्दीघाटी का नाला फांदता चेतक

 दिवेर का युद्ध ( मेवाड़ के मैराथन )

महाराणा प्रताप ने धीरे धीरे अपनी शक्ति अर्जित की और अक्टूबर 1582 में दिवेर और छापली के दर्रो के मध्य हुए दिवेर का युद्ध में मुगल सेना को वापस लौटने पर मजबूर कर दिया । यह इतिहास का एक महत्वपूर्ण युद्ध माना जाता है, क्योंकि इस युद्ध में महाराणा प्रताप को अपने खोये हुए राज्यों की पुनः प्राप्ती हुई । इस युद्ध के पश्चात महाराणा प्रताप व मुगल सल्तनत के बीच एक लम्बा संघर्ष चला, इसलिए कर्नल जेम्स टॉड ने इस युद्ध को " मेवाड़ का मैराथन " कहा था |
दिवेर का युद्ध

दिवेर के युद्ध के पश्चात महाराणा प्रताप एक के बाद एक गढ़ जीतते जा रहे थे, उधर अकबर भी अपने साम्राज्य में हो रहे विद्रोहों को दबाने में उलझ गया परिणामस्वरूप मेवाड़ में मुगल साम्राज्य का शिकंजा छूटने लगा । इसका लाभ उठाकर महाराणा प्रताप ने 1585 तक लगभग सम्पूर्ण मेवाड़ पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया । इस लंबे संघर्ष के पश्चात भी मेवाड़ अकबर के हाथों से फिसल गया । महाराणा प्रताप सिंह के डर से ही अकबर अपनी राजधानी लाहौर लेकर गया और तब तक वापस नहीं लौटा जब तक की महाराणा के स्वर्ग सिधारने का समाचार नहीं मिला ।
उसके बाद महाराणा प्रताप अपने राज्य की उन्नति में जुट गए, परंतु दुर्भाग्य से 19 जनवरी 1597 को अपनी नई राजधानी चावंड में उनकी मृत्यु हो गई ।


उपसंहार

महाराणा प्रताप के स्वर्गवास के समय अकबर लाहौर में था, जब उसे सूचना मिली कि महाराणा प्रताप की मृत्यु हो गई है । अकबर की उस समय की मनोदशा पर अकबर के दरबारी दुरसा आढ़ा ने राजस्थानी छंद में जो विवरण लिखा वो कुछ इस प्रकार है -:
अस लेगो अणदाग पाग लेगो अणनामी !
गो आडा गवड़ाय जीको बहतो घुरवामी !!
नवरोजे न गयो न गो आसतां नवल्ली !
न गो झरोखा हेठ जेठ दुनियाण दहल्ली !!
गहलोत राणा जीती गयो दसण मूंद रसणा डसी !
निसा मूक भरिया नैण तो मृत शाह प्रतापसी !!
अर्थात -:  हे गेहलोत राणा प्रताप सिंह तेरी मृत्यु पर शाह यानी सम्राट ने दांतों के बीच जीभ अपनी दबाई और निःश्वास के साथ आंसू टपकाए । क्योंकि तूने कभी भी अपने घोड़ों पर मुगलिया दाग नहीं लगने दिया । तूने अपनी पगड़ी को किसी के आगे झुकाया नहीं, हालांकि तू अपना आडा यानि यश या राज्य तो गंवा गया लेकिन फिर भी तू अपने राज्य के धुरे को बांए कंधे से ही चलाता रहा । तेरी रानियां कभी नवरोजों में नहीं गईं और ना ही तू खुद आसतों यानि बादशाही डेरों में गया । तू कभी शाही झरोखे के नीचे नहीं खड़ा रहा और तेरा रौब दुनिया पर निरंतर बना रहा । इसलिए मैं कहता हूँ कि तू सब तरह से जीत गया और बादशाह हार गया ।
महाराणा प्रताप को उनके स्वाभिमान, अदम्य साहस, जिजीविषा और कभी हार न मानने वाले जज्बे की वजह से भारतीय इतिहास में सम्मानपूर्वक देखा और पढ़ा जाता है । आज भी महाराणा प्रताप का जीवन चरित्र समस्त भारतीयों के लिए गर्व का विषय है ।
अपनी मातृभूमि की आजादी के लिए अपना जीवन बलिदान कर देने वाले ऐसे वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप और उनके उनके स्वामिभक्त चेतक को शत-शत नमन । 🙏🙏🙏🙏
महाराणा प्रताप

राजस्थान के प्रमुख जौहर, साका Rajasthan Jauhar, Saka

राजस्थान के प्रमुख जौहर, साका (Jauhar, Saka in Rajasthan) : राजस्थान के इतिहास में "जौहर तथा साकों" का एक विशिष्ठ स्थान है। यहाँ पर युद्ध में वीर सैनिकों एवं उनकी स्त्रियों ने शत्रु की पराधीनता को स्वीकार करने की बजाए सहर्ष मृत्यु का चुनते हुए जान न्यौछावर की है। जौहर व साका उस स्थिति में किए गए जब शत्रु को घेरा डाले बहुत अधिक दिन हो गए या युद्ध में हार निश्चय हो या शत्रु ने युद्ध में विजय प्राप्त कर ली हो। जौहर की घटनाएँ मुख्यत: राजस्थान में मुगल शासकों के आक्रमण एवं युद्ध में हराने के पश्चात उनके द्वारा लूट-पाट एवं स्त्रियों के शीलभंग के कारण होती थी।
जौहर किसे कहते हैं: युद्ध के बाद महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों व व्यभिचारों से बचने तथा अपनी पवित्रता कायम रखने हेतु महिलाएं अपने कुल देवी-देवताओं की पूजा करके जलती चिताओं में कूद पड़ती थी। वीरांगना महिलाओं का यह आत्म बलिदान का कृत्य जौहर के नाम इतिहास में जाना जाता है। जौहर कर लेने का कारण युद्ध में हार होने पर शत्रु राजा द्वारा हरण किये जाने का भय होता था।
साका किसे कहते हैं: युद्ध के दौरान जब युद्ध में हार निश्चित हो जाती थी एवं महिलाओं को जौहर की ज्वाला में कूदने का निश्चय करते देख पुरूष केशरिया वस्त्र धारण कर मरने मारने के निश्चय के साथ युद्ध में दुश्मन सेना पर टूट पड़ते थे कि या तो विजयी होकर लोटेंगे अन्यथा विजय की कामना हृदय में लिए अन्तिम दम तक शौर्यपूर्ण युद्ध करते हुए दुश्मन सेना का ज्यादा से ज्यादा नाश करेंगे। इसे साका कहा जाता है।

राजस्थान के प्रमुख जौहर, साका (Jauhar, Saka in Rajasthan)
  • चित्तौड़गढ़ के 3 साके
    1. प्रथम साका: यह सन् 1303 में राणा रतन सिंह के शासनकाल में अलाउद्दीन खिलजी के चित्तौड़ पर आक्रमण के समय हुआ था। इसमें रानी पद्मनी सहित स्त्रियों ने जौहर किया था। अलाउद्दीन की महत्वाकांक्षा और राणा रतनसिंह की अनिंद्य सुंदरी रानी पद्मिनी को पाने की लालसा हमले का कारण बनी। चित्तौड़ के दुर्ग में सबसे पहला जौहर चित्तौड़ की महारानी पद्मिनी के नेतृत्व में 16000 हजार रमणियों ने अगस्त 1303 में किया था।
    2. दूसरा साका:  यह 1534 ई. में राणा विक्रमादित्य के शासनकाल में गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह के आक्रमण के समय हुआ था। इसमें राजमाता हाड़ी (कर्णावती) और दुर्ग की सैकड़ों वीरांगनाओं ने जौहर का अनुष्ठान कर अपने प्राणों की आहुति दी।
    3. तीसरा साका: यह 1567 में राणा उदयसिंह के शासनकाल में अकबर के आक्रमण के समय हुआ था जिसमें जयमल और पत्ता के नेतृत्व में चित्तौड़ की सेना ने मुगल सेना का जमकर मुकाबला किया और स्त्रियों ने जौहर किया था। यह साका जयमल राठौड़ और फत्ता सिसोदिया के पराक्रम और बलिदान के प्रसिद्ध है।
  • जैसलमेर के ढाई साके:
    1. प्रथम साका:  यह अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के समय हुआ था। इसमें भाटी शासक रावल मूलराज, कुंवर रतनसी सहित अगणित योद्धाओं ने असिधारा तीर्थ में स्नान किया और ललनाओं ने जौहर का अनुष्ठान किया।
    2. दूसरा साका:  दूसरा साका फिरोज शाह तुगलक के शासन के शुरुआती वर्षों में हुआ। रावल, दूदा, त्रिलोकसी व अन्य भाटी सरदारों और योद्धाओं ने शत्रु सेना से लड़ते हुए वीरगति पाई और दुर्गस्थ वीरांगनाओं ने जौहर किया।
    3. तृतीय साका (आधा साका): यह घटना 1550 ईस्वी में लूणकरण के शासन काल में कंधार के शासक अमीर अली के आक्रमण के समय हुआ था। तीसरा साका अद्र्ध साका कहलाता है। कारण इसमें वीरों ने केसरिया तो किया लेकिन जौहर नहीं हुआ। अत: इसे आधा साका ही माना जाता हैं। इसलिए जैसलमेर के ढाई साके गिने जाते हैं।  
  • गागरोण (जालौर) के 2 साके
    1. प्रथम साका: 1423 ईस्वी में अचलदास खींची के शासन काल में माण्डू के सुल्तान होशंगशाह के आक्रमण के समय हुआ था। इसमें रानियों व स्त्रियों ने जौहर किया।
    2. दूसरा साका: गागरोण का दूसरा साका 1444 ईस्वी में हुआ। जब मांडू के सुल्तान महमूद खिलजी ने विशाल सेना के साथ इस दुर्ग पर आक्रमण किया एवं स्त्रियों ने जौहर किया।
  • रणथंभौर का 1 साका: यह सन् 1301 में अलाउद्दीन खिलजी के ऐतिहासिक आक्रमण के समय हुआ था। इसमें हम्मीर देव चौहान विश्वासघात के परिणामस्वरूप वीरगति को प्राप्त हुआ तथा उसकी पत्नी रंगादेवी ने जौहर किया था। इसे राजस्थान का प्रथम साका माना जाता है। 
  • जालौर का 1 साका: कान्हड़देव के शासनकाल में 1311-12 में अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के समय हुआ था एवं स्त्रियों ने जौहर किया।

श्री सांवलिया सेठ मंदिर, मण्डफिया

श्री सांवलिया सेठ मंदिर, मण्डफिया
  • श्री सांवलिया सेठ मंदिर भगवान श्री कृष्ण को समर्पित एक प्रमुख मंदिर है जो चित्तौड़गढ़ से 40 किमी दूर मण्डफिया ग्राम में स्थित है।
  • श्री सांवलिया सेठ मंदिर में भगवान कृष्ण की काले रंग की प्रतिमा है, इन्हें साँवरिया सेठ मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। 
  • किवदंतियों के अनुसार सन 1840 मे भोलराम गुर्जर नाम के ग्वाले को एक सपना आया की भादसोड़ा - बागूंड के छापर मे 3 मूर्तिया ज़मीन मे दबी हुई है. जब उस जगह पर खुदाई की गयी तो भोलराम का सपना सही निकला और वहा से 3 एक जैसे मूर्तिया निकली. सभी मूर्तिया बहुत ही मनोहारी थी.
  • इन मूर्तियो मे साँवले रूप मे श्री कृष्ण भगवान बाँसुरी बजा रहे है. इनमे से एक मूर्ति मण्डपिया ग्राम ले जायी गयी और वहा पर मंदिर बनाया गया । दूसरी मूर्ति भादसोड़ा ग्राम ले जायी गयी और वहा पर भी मंदिर बनाया गया । तीसरी मूर्ति को यही प्राकट्य स्थल पर ही मंदिर बना कर स्थापित की गयी । कालांतर में तीनो मंदिरों की ख्याति भी दूर-दूर तक फेली। आज भी दूर-दूर से हजारों यात्री प्रति वर्ष दर्शन करने आते हैं।

Begu Kisan Andolan

Begu Kisan Andolan (बेगूँ किसान आंदोलन) - Some facts to remember:   
* Begu or Begun farmer's movement was one of the farmer's movements of Rajasthan during British Raj in India. Begun is a village in Chittorgarh district.
* It was a movement of peasants against high taxes by then Mewar government. This movement was started from Menal in 1921 where farmers gathered and decided for struggle against government for demad of implementing taxation system fair and reasonable. 
* Vijay Singh Pathik gave leadership of this movement to Ramnarayan Chaudhary. Later leadership of this movement was handed over to Vijay Singh Pathik...So Pathik and Choudhary both headed this movement 
* The farmers decided not to pay Lags and Begars(Taxes and labour work) as well as to boycott courts and govt. offices. In reaction govt. launched a operation of crushing movement against people. After 2 years a ageement was made between Rajasthan Sewa Sangh(a farmer's union) and Thakur Anup Singh but it was opposed by government naming it 'Bolshevik agreement' and a government appointed a government employee in the place of Thikanedar under its 'Munsarmat policy'.   
* Government sent Trench commission for the inquiry of demands of Bengun movement. Mr. Trench, head of the commission justified almost all taxes except small taxes. Later on 13 July 1923,Mr. Trench opened fire after lathicharge on a non-violent assembly of farmers. Rupaji and Kripaji, two farmers were dead. These are remembered as martyrs of Begun in history of Rajasthan.

Jo Dridh rakhe dharm ne, Tahi rakhe kartar

Jo Dridh rakhe dharm ne, Tahi rakhe kartar (जो दृढ राखै धर्म ने, तिहीं राखै करतार)
"जो दृढ राखै धर्म को, तिहीं राखै करतार"
ये शब्द मेवाड़ के बारे में कहे जाते हैं एवं  दक्षिण राजस्थान के प्राचीन "मेवाड़ राज्य" के राज्य चिन्ह में अंकित शब्द हैं जो मवाड़ की स्वतंत्रता प्रियता एवं धर्म पर दृढ रहने को स्वयंमेव ही स्पष्ट करता है । मेवाड़ के महाराणाओं ने मुग़ल बादशाहों के पास जाकर उनका विशेष कृपापात्र बनाना उचित नहीं समझा व अपना गौरव बनाये रखा |
It is believed that the slogan Jo dridh rakhe dharm ne, tahi rakhe kartar was spoken by Abdur Rahim Khankhana, who is also known as "Rahim das" in Hindi poetry.
About Maharana Pratap: Maharana Pratap (May 9, 1540-January 29, 1597) was a ruler of Mewar, a state in north-western India. He belonged to the Sisodia clan of Suryavanshi Rajputs. The epitome of fiery Rajput pride and self-respect, Pratap has for centuries exemplified the qualities that Rajputs aspire to. Pratap, eldest of 25 brothers and 20 sisters, was born at Kumbhalgarh on Sunday the May 9, 1540 to Maharana Udai Singh II and Maharani Javanta Bai Songara (Chauhan). Polygamy and maximum children were social necessity of the period owing to higher female population and high battle casualties. Rana Pratap had 17 sons and five daughters. The male-line descendants of Udai Singh II bear the patronymic "Ranawat". Maharana Pratap was Born in Pali-Marwar. His birth place known as Juni Kacheri.

Fort of Amber, Chittorgarh, Gangron, Jaisalmer, Kumbhalgarh and Ranthambore included in UNESCO World Heritage List

The 'Hill Forts of Rajasthan', six forts located on the rocky terrains of the Aravali mountains, made it to the World Heritage Sites list of UNESCO. The hill forts are Amber, Chittorgarh, Gangron, Jaisalmer, Kumbhalgarh and Ranthambore. Rajasthan's Tourism, Art and Culture Minister Bina Kak said: "The selection of these forts is a reflection of our work done in the past. We stand by our commitment towards conservation and protection of our rich cultural heritage, of which we are immensely proud." The minister added that the hill forts were approved in the 37th meeting of the World Heritage Committee in Pnom Penh, Cambodia, June 21. The selection of these forts as a serial cultural property is the first of its kind ever by the Unesco, she said. Kak added that the six forts will receive enhanced international recognition like the Jantar Mantar in Jaipur after it was selected for the World Heritage List in 2010.
The selection will also pave the way for other monuments to be nominated for being included in the World Heritage List. Built between 18th and 19th centuries, the forts are excellent example of Rajput military hill architecture, which are found in palaces, temples, memorials and even in villages. Several missions of International Council on Monuments and Sites (ICOMOS), an advisory body to the Unesco, have been visiting Rajasthan since 2011 and discussed the nomination with the state archaeology department, Archaeological Survey of India and the Indian Advisory Committee on the World Heritage under the union ministry of culture.

Chittorgarh Fort

Chittorgarh Fort - Some Fact & GK QUIZ:
* Chittorgarh Fort is the largest fort in India and Rajasthan.
* Chittorgarh Fort was build by the Mauryans during the 7th century AD and hence derives its name after the Mauryan ruler, Chitrangada Mori, as inscribed on coins of the period.
* It is situated on the left bank of the Berach river (a tributary of the Banas River)
* The fort was sacked three times between the 15th and 16th centuries, Following these defeats, Jauhar was committed thrice by more than 13,000 ladies and children of the Rajput heroes who laid their lives in battles at Chittorgarh Fort, first led by Rani Padmini wife of Rana Rattan Singh who was killed in the battle in 1303, and later by Rani Karnavati in 1537 AD. 
* Vijay Stambha (Tower of Victory) or Jaya Stambha, called the symbol of Chittor and a particularly bold expression of triumph, was erected by Rana Kumbha between 1458 and 1468 to commemorate his victory over Mahmud Shah I Khalji, the Sultan of Malwa, in 1440.

Vijay Stambh, Chittorgarh

Vijay Stambh, Chittorgarh is the key among the tourist attractions in Chittorgarh. Built by Rana Kumbha in 1440 AD to celebrate his victory over Mahmud Khilji of Malwa, the tower is a must on your Chittorgarh tour. The star among the places of tourist interest in Chittorgarh, this tower is a marvel of architecture.
Vijay Stambh (Tower of Victory) Chittorgarh, Rajasthan, India is a 9-storied structure. With an imposing height of 37 meters, the monument is sure to inspire everyone on his Chittorgarh tour. Each of the story ids adorned with beautiful sculptures of Hindu divine beings. Indeed many on their visit to Chittorgarh regard it as the finest example of the famed Rajput style of architecture. Its design and architecture points the agility of the craftsmen making it the most remarkable of the tourist attractions in Chittorgarh. The 157 circular and narrow steps led to the terrace. The tower is bedecked with sculptures of Hindu gods and scenes from the well known Ramayana and Mahabharata epics.

Chittorgarh District Constable Exam Result 2013

Rajasthan Police Constable Written Exam Chittorgarh  Result 2013: Rajasthan Police has declared the Written Exam Results for Rajasthan Police Constable GD Exam 2012 held on 6th January 2013. Rajasthan Police Constable Written Exam Result for Chittorgarh declared / announced on 14th March 2013 on official website of Rajasthan Police http://police.rajasthan.gov.in. Candidates can check Rajasthan Police Constable Written Exam Results by Roll No. or Name from below website Links:

Chittorgarh District Rajasthan Police Constable Exam 2013 Result

For Full Results of All Districts of Rajasthan, please visit:
Rajasthan Police Constable Results 2013

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Sanwariya Seth Temple, Mandaphia (Rajasthan)

Sanwariya Seth Temple, Mandaphia: Sanwaliya Seth is Avatar of Lord Krishna.Sanwaliyaji also known as sanwariyaji or sanwariya seth or sanwara seth or setho ke seth.This temple is very famous in north india especially in Rajasthan, Gujrat, Maharashtra,Uttar Pradesh & Madhya Pradesh. 
Various festivals and ceremonies organized round the year by the Mandir Mandal or by the devotees from different parts of the country. Especially, on the 11th day of Bhadra- Shukla (Dev-Jhulni Ekaadashi), the Mandir Mandal organizes a mela (fair) and a rath processesion of the Lord in which lakhs of people participate with great religious fervour and zeal.