बगड़ावत भारत भाग 2 - भगवान देवनारायण जी जन्म कथा भाग 2

भगवान देवनारायण जी कथा भाग 2


BHAGWAN DEVNARAYAN KATHA

बगड़ावत भारत कथा भाग 1


कथा के अनुसार जब बाघ सिंह बाथ भरते हैं उनकी बाहों में 13 लड़कियां समा जाती है । जिससे बाघ सिंह शादी करने को तैयार हो जाते है । 12 लड़कियों से स्वयं शादी कर लेते हैं और एक लड़की अपने ब्राह्मण मित्र को जो फैरे करवाता है, उसको दे देते है । उन्ही बारह औरतों से बाघ जी की 24 पुत्र होते हैं, वही 24 भाई बगड़ावत कहलाते हैं ।

बगड़ावत गुर्जर जाति से सम्बंध रखते थे और इनका मुख्य व्यवसाय पशुपालन था । वे इस कार्य में प्रवीण थे और उन्होनें अपनी गायों की नस्ल भी सुधारी थी । उनके पास बहुत बढिया नस्ल की गायें थी । गाथा के अनुसार उनके पास काबरा नामक उत्तम नस्ल का सांड था । उनके पास 4 बढिया नस्ल की गायें थी जिनमें सुरह, कामधेनु, पारवती और नांगल गायें थी । इनकी हिफाजत और सेवा में ये लोग लगे रहते थे । बगड़ावत भाईयों में सबसे बड़े तेजाजी, सवाई भोज, नियाजी, बहारावत आदि थे । सवाई भोज की शादी मालवा में साडू खटानी के साथ होती है ।

साडू खटानी के यहां से भी दहेज में बगड़ावतों को पशुधन मिलता है । एक ग्वाला जिसका नाम नापा ग्वाल होता है उसे बगड़ावत साडू के पीहर मालवा से लाते है । नापा ग्वाल इनके पशुओं को जंगल में चराने का काम करता था । इसके अधीन भी कई ग्वाले होते है जो गायों की देखरेख करते थे । गाथा के अनुसार बगड़ावतों के पास 1,80,000 गायें और 1444 ग्वाले थे ।

24 बगड़ावत भाई अपने ग्वालों के साथ गायें चराते थे । एक बार सवाई भोज ने ध्यान दिया कि उनकी गायों में एक गाय ऐसी होती है जो रोज सुबह उनकी गायों के साथ शामिल हो जाती थी और शाम को लौटते समय वह अलग चली जाती है । यह देख सवाई भोज अपने भाई नियाजी को कहते हैं कि इस गाय के पीछे जाओ और पता करो की यह गाय किसकी है और कहां से आती हैं ? और इसके मालिक से अपनी ग्वाली का मेहनताना लेकर आना ।

नियाजी उस गाय के पीछे-पीछे जाते हैं । वह गाय एक गुफा में प्रेवेश कर जाती हैं । नियाजी भी पीछे पीछे वहां पहुंच जाते हैं और देखते है कि गुफा में एक साधु धूनी के पास बैठेकर साधना कर रहे हैं । नियाजी साधु से पूछते हैं कि महाराज यह गाय आपकी है ? साधु कहते है, हां गाय तो हमारी ही है । नियाजी कहते है आपको इसकी गुवाली देनी होगी । यह रोज हमारी गायों के साथ चरने आती है । हम इसकी देखरेख करते हैं ।

साधु कहता है कोई बात नहीं बेटा ग्वाली भी दे देंगे, चलो अपनी झोली फैलाओ । नियाजी अपनी कम्बल की झोली फैलाते हैं । बाबा रुपनाथजी धूणी में से धोबे भर धूणी की राख नियाजी की झोली में डाल देते हैं और कहते है" बेटा मेरे पास तो यही है देने के लिए ।"

नियाजी भी बिना कुछ कहे राख लेकर वहां से अपने घर की ओर चल देते हैं । रास्ते में साधु के द्वारा दी गई धूणी की राख को गिरा देते हैं और घर आकर राख लगे कम्बल को खूंटीं पर टांक देते हैं । जब रात होती है तो अन्धेरें में खूंटीं परटंगे कम्बल से प्रकाश फूटता है । तब सवाई भोज देखते हैं कि उस कम्बल में कहीं-कहीं सोने एवं हीरे जवाहरात लगे हुए हैं तो वह नियाजी से सारी बात पूछते हैं । नियाजी सारी बात बताते हैं । बगड़ावतों को लगता है कि जरुर वह साधु कोई करामाती पहुंचा हुआ है । यह जानकर कि वो राख मायावी थी, सवाई भोज अगले दिन उस साधु की गुफा में जाते हैं और रुपनाथजी को प्रणाम करके बैठ जाते हैं, और बाबा रुपनाथजी की सेवा करते हैं । यह क्रम कई दिनो तक चलता रहता है । एक दिन बाबा रुपनाथजी निवृत होने के लिये गुफा से बाहर कहीं जाते हैं । पीछे से सवाई भोज गुफा के सभी हिस्सो में घूम फिर कर देखते हैं । उन्हें एक जगह इन्सानों के कटे सिर दिखाई देते हैं । वह सवाई भोज को देखकर हंसते हैं । सवाई भोज उन कटे हुए सिरों से पूछते हैं कि हँस क्यों रहे हो ? तब उन्हें जवाब मिलता है कि तुम भी थोड़े दिनों में हमारी जमात में शामिल होनेवाले हो, यानि तुम्हारा हाल भी हमारे जैसा ही होने वाला है । हम भी बाबा की ऐसे ही सेवा करते थे । थोड़े दिनों में ही बाबा ने हमारे सिर काट कर गुफा में डाल दिए । ऐसा ही हाल तुम्हारा भी होने वाला है । यह सुनकर सवाई भोज सावधान हो जाते हैं ।

JODHPURIYA

थोड़ी देर बाद बाबा रुपनाथ वापस लौट आते हैं और सवाई भोज से कहते हैं कि मैं तेरी सेवा से प्रसन्न हुआ । आज मैं तेरे को एक विद्या सिखाता हूं । सवाई भोज से एक बड़ा कड़ाव और तेल लेकर आने के लिये कहते हैं । सवाई भोज बाबा रुपनाथ के कहे अनुसार एक बड़ा कड़ाव और तेल लेकर पहुंचते हैं । बाबा कहते हैं कि आग जलाकर कड़ाव उस पर चढ़ा दे और तेल कड़ाव में डाल दे । तेल पूरी तरह से गर्म हो जाने पर रुपनाथजी सवाई भोज से कहते हैं कि आजा इस कड़ाव की परिक्रमा करते हैं । आगे सवाई भोज और पीछे बाबा रुपनाथजी कड़ाव की परिक्रमा शुरु करते हैं । बाबा रुपनाथ सवाईभोज के पीछे-पीछे चलते हुये एकदम सवाईभोज को कड़ाव में धकेलने का प्रयत्न करते हैं । सवाईभोज पहले से ही सावधान होते हैं, इसलिए छलांग लगाकर कड़ाव के दूसरी और कूद जाते हैं और बच जातेहैं । फिर सवाईभोज बाबा रुपनाथ से कहते हैं महाराज अब आप आगे आ जाओ और फिर से परिक्रमा शुरु करते हैं । सवाईभोज जवान एवं ताकतवर होते हैं । इस बार वह परिक्रमा करते समय आगे चल रहे बाबा रुपनाथ को उठाकर गर्म तेल के कड़ाव में डाल देते हैं । बाबा रुपनाथ का शरीर कड़ाव में गिरते ही सोने का हो जाता है । वह सोने का पोरसा बन जाता है ।

तभी अचानक आकाश से आकाशवाणी होती है कि सवाई भोज तुम्हारी बारह वर्ष की काया है और बारह वर्ष की ही माया है । यानि बारह साल की ही बगड़ावतों की आयु है और बाबा रुपनाथ की गुफा से मिले धन की माया भी बारह साल तुम्हारे साथ रहेगी । और एक आकाशवाणी यह भी होती है की यह जो सोने का पोरसा है इसको तुम पांवों की तरफ से काटोगे तो यह बढेगा और यदि सिर की तरफ से काटोगे तो यह घटता जायेगा । इस धन को तुम लोग खूब खर्च करना, दान-पुण्य करना । इधर बाबा रुपनाथ भी धूणी की राख से पुनः जीवित हो जाते हैं और सवाई भोज को अपना शिष्य बनाते हैं ।

सवाई भोज को बाबा रुपनाथ की गुफा से भी काफी सारा धन मिलता है जिनमें एक जयमंगला हाथी, एक सोने का खांडा, बुली घोड़ी, सुरह गाय, सोने का पोरसा, कश्मीरी तम्बू इत्यादि । दुर्लभ चीजें लेकर सवाई भोज घर आ जाते हैं ।

क्रमशः...............

बगड़ावत भारत कथा जारी है भाग 3

BAGDAWAT KATHA

बगड़ावत भारत भाग 1 - भगवान देवनारायण जी जन्म कथा भाग 1

भगवान देवनारायण जी जन्म कथा भाग 1


BAGDAWAT BHARAT KATHA

कथा की शुरुआत उस समय से होती हैं जब अजमेर में राजा बीसलदेव का राज था । बीसलदेव के छोटे भाई मांडल जी थे जो भगवान शंकर के अनन्य भक्त थे । एक बार राजा बीसलदेव, मांडल जी को सेना के लिए घोड़े खरीदने  मेवाड़ भेजते हैं । गर्मी के दिन थे, अजमेर से रवाना हुए मांडल जी अभी आधे रास्ते ही पहुंचे थे कि प्यास से गला सूखने लगा । प्यास से परेशान होकर मांडल जी ने एक वटवृक्ष की छाव में डेरा डाला और सैनिकों को पानी लाने का आदेश दिया । काफी समय पश्चात सैनिक निराश होकर लौटे और बताया कि यहाँ कोसों दूर तक पानी को कोई स्त्रोत नहीं है । उस समय भगवान शंकर ने पनिहारी का रूप धारण किया और माण्डलजी की प्यास बुझाई । इससे माण्डलजी बहुत खुश हुए और उसी स्थान पर लोगों की भलाई के लिए तालाब निर्माण का कार्य शुरू किया । घोड़े खरीदने के लिए लायी मोहरें जब खत्म हो गई तो बीसलदेव जी से घोड़े खरीदने के नाम पर और मोहरें मंगवाई । काफी समय बीतने पर भी जब माण्डलजी घोड़े लेकर अजमेर नहीं पहुंचे तो बीसलदेव अपने सैनिकों के साथ मेवाड़ के लिए रवाना हुए । इसकी खबर जब माण्डलजी की लगी तो उन्होंने घोड़े सहित उसी तालाब में जल समाधि ले ली । बीसलदेव को यह जानकर बहुत दुख होता है और माण्डलजी की याद में उसी तालाब के बीच में एक विशाल छतरी और मीनार का निर्माण करवाते हैं और वहीं पर माण्डलजी के नाम पर माण्डल गांव की नींव रखी जाती है ।

माण्डल जी के पुत्र हरिराम जी थे जिन्हें शिकार खेलने का शौक था, एक बार राजा बिसलदेव के राज्य में पुष्कर के नजदीकी गांव में एक आदमखोर शेर ने आतंक फैला दिया । शेर रात को चुपके से गांव में प्रेवेश करता और छोटे-छोटे बच्चो को उठा कर ले जाता था । कई शिकारियों को बुलाया पर कोई भी शेर को मार नहीं पाया बल्कि इस चक्कर में खुद मारे गए । रोजाना बच्चों के गायब होने से दुखी होकर गांववालों ने तय किया कि शेर को जंगल में ही भोजन के रूप में एक आदमी भेज दिया जाएगा ताकि वह गांव में प्रेवेश न करे, और एसा ही किया जाने लगा । एक बार हरिराम जी शिकार खेलते हुए उस गांव के नजदीक पहुंचे और सूर्यास्त होने के कारण रात्रि विश्राम वहीं करने का निश्चय किया और रात बिताने के लिए गांव के बाहर की तरफ बनी झोपड़ी में पहुंचे और वहां मौजूद बुढ़िया से उनकी झोपड़ी में रात बिताने की अनुमति मांगी, बुढ़िया ने खुशी खुशी हरिराम जी को रात बिताने की अनुमति दे दी ।

रात को हरिराम जी ने देखा कि बुढ़िया अपने बेटे को बड़े प्यार से खाना खिला रही थी और साथ ही रो रही थी । हरिरामजी ने बुढ़िया से उसके रोने का कारण पूंछा, तब बुढ़िया ने हरिरामजी को आदमखोर शेर के बारे में बताया और कहा की आज उनकी बारी है । एक बेटा पहले ही शेर का भोजन बन चुका है और आज रात दूसरे बेटे की बारी है । यह सुनकर हरीरामजी बुढिया को कहते हैं कि मां । आपने मुझे आसरा दिया है, इसलिए मैं आपका कर्जदार हूँ , मैं आज तेरे बेटे की जगह शेर का भोजन बनने के लिए चला जाता हूं ।

यह कहकर हरिराम जी जंगल में शेर की गुफा की ओर जाते हैं और गुफा से कुछ दूरी पर आटे का एक इंसाननुमा पुतला बनाकर खड़ा कर देते हैं और खुद पास की झाड़ी में छुप जाते हैं । जब शेर आटे के पुतले को अपना शिकार समझकर हमला करता हैं तो हरीरामजी झाड़ी से बाहर आकर तलवार के एक ही वार से शेर की गर्दन अलग कर देते हैं ।

इसके बाद हरिराम जी शेर का कटा हुआ सिर हाथ में लेकर अपनी खून से सनी तलवार को धोने के लिए पुष्कर घाट की ओर जाते हैं । उसी रास्ते में लीला सेवड़ी नामक एक औरत रहती थी । जो सुबह सुबह सबसे पहले उठकर पुष्कर घाट पर नहा धोकर वराह भगवान की पूजा करने के लिये जाती थी । उसने यह प्रण ले रखा था कि वराह भगवान की पूजा करने के बाद ही किसी इन्सान का मुँह देखेगी । 

इधर पुष्कर घाट पहुंच कर हरीरामजी तलवार को धोने के लिए सीढ़ियों से नीचे उतरते हैं, उधर लीला सेवड़ी जो वराह भगवान की पूजा कर रही होती है, आहट सुनकर पीछे मुड़कर देखती है । हरीरामजी अचानक सामने लीला सेवड़ी को देख हड़बड़ाहट में शेर का कटा हुआ सिर आगे कर देते है ।

जिससे लीला सेवड़ी को हरिराम जी का सिर तो शेर का और धड़ इन्सान का दिखाई देता है । वह हरिराम जी से कहती है कि यह तुमने सही नही किया ? अब मेरे जो सन्तान होगी वह ऐसी ही होगी, जिसका सिर तो शेर का होगा और शरीर आदमी का । अब लीला सेवड़ी कहती है कि आपको मेरे साथ विवाह करना होगा ।

हरीरामजी सोचते है कि ऐसी सती औरत कहाँ मिलेगी, और विवाह के लिये तैयार हो जाते हैं । और विवाह के कुछ समय पश्चात हरीरामजी और लीला सेवड़ी के यहां एक सन्तान पैदा होती है, जिसका सिर तो शेर का और बाकि शरीर मनुष्य का होता है ।

पैदा होते ही हरीरामजी उस बच्चे को लेकर एक बाग में बरगद के पेड़ की कोचर में छिपा कर चले आते हैं । दूसरे दिन बाग का माली आता है और देखता है कि बाग तो एक दम हरा भरा हो गया है। यह क्या चमत्कार है और वह पूरे बाग में घूम फिर कर देखता है तो उसे बरगद की खोल में एक नवजात शिशु के रोने की आवाज सुनाई देती है और बाग का माली दौड़ कर बरगद के पेड़ की खौल में से बच्चे को निकलता है ।

वह यह देखकर दंग रह जाता है कि बच्चे का मुँह शेर का और शरीर इन्सान का है । इस अनोखे बच्चे को लेकर माली, राजा के पास लेकर जाता है ।

SAWAI BHOJ ASIND

बच्चे को देखकर हरिराम जी राजा बीसलदेव को सारी बात बात देते है, तब उस बच्चे के लालन-पालन का जिम्मा राजा बीसलदेव स्वयं लेने के लिए तैयार हो जाते हैं, और उस बच्चे का नाम बाघ सिंह ( बाघराव ) रख देते हैं । बाघ सिंह की देख-रेख के लिए उस बाग में एक ब्राह्मण को नियुक्त कर देते हैं । बाघ सिंह उसी बाग में खेलते कूदते बड़े होते हैं ।

राजस्थान में यह प्रथा है कि सावन के महीने मे तीज के दिन कुंवारी कन्याएं झूला झूलने के लिये बाग में जाती है । यही जानकर उस दिन बाघ सिंह और ब्राह्मण भी अपने बाग में झूले डालते हैं ।

बाघ सिंह अपने बाग में झूला झूलने के लिये आयी हुई कन्याओं से झूलने के लिये एक शर्त रखते हैं कि झूला झूलना है तो मेरे साथ फैरे लेने होगें ? लड़कियां पहले तो मना कर देती है लेकिन फिर आपस में बातचीत करती है कि फैरे लेने से कोई इसके साथ शादी थोड़े ही हो जायेगी। कुछ लड़कियां बाघ सिंह के साथ फैरे लेकर झूला झूलने के लिये तैयार हो जाती है और कुछ वापस अपने घर लौट जाती हैं ।

बाघ सिंह के साथ उसका ब्राह्मण मित्र लड़कियों के फैरे करवाता है और झूला झूलने की इजाजत देता है । उस दिन लड़कियां झूला झूलकर अपने घर वापस आ जाती हैं । जब वह लड़कियां बड़ी होती है तब उनके घर वाले उनकी शादी के सावे ( लग्न ) निकलवाते हैं, लेकिन जब उनकी शादी के लग्न नहीं मिलते हैं तब घर वालों को चिन्ता होती है कि आखिर इनके लग्न क्यों नहीं मिल रहे हैं ।

लड़कियों के माता-पिता राजा बिसलदेवजी के पास जाकर यह बात बताते हैं । राजा बिसलदेवजी एक युक्ति निकालते हैं और सब लड़कियों को एक जगह एकत्रित करते हैं और उनके पास पहरे पर एक बूढ़ी दाई को बैठा देते हैं, और कहते हैं कि यह बहरी है इसे कुछ सुनाई नहीं देता है । सारी लड़कियां आपस में खुसर-फुसर करती हैं और कहती हैं कि मैंने कहा था कि बाघ सिंह के साथ फैरे नहीं लो और तुम नहीं मानी । उसी का यह अंजाम है कि आज अपनी शादी नहीं हो पा रही है । यह बात बूढ़ी औरत सुन लेती है, और दूसरे दिन राजा बिसलदेवजी को सारी बात बताती है । फिर राजा बिसलदेवजी बाघ सिंह को बुलाते हैं और उन्हें फटकार लगाते हैं । बाघ सिंह कहते है कि मैं एक बाथ भरूंगा, जो लड़कियां मेरी बाथ में आ जायेगी उनसे तो मैं शादी कर लूंगा और बाकि लड़कियों के सावे निकल जायेगें । बाघ सिंह जब बाथ भरते हैं उनकी बाहों में १३ लड़कियां समा जाती है । जिससे बाघ सिंह शादी करने को तैयार हो जाते है । 12 लड़कियों से स्वयं शादी कर लेते हैं और एक लड़की अपने ब्राह्मण मित्र को जो फैरे करवाता है, उसको दे देते है । उन्ही बारह औरतों से बाघ जी की 24 पुत्र होते हैं, वही 24 भाई बगड़ावत कहलाते हैं ।

क्रमशः..........

बगड़ावत भारत कथा भाग 2 जारी है


भगवान देवनारायण

जोगणिया माता मंदिर की जानकारी व इतिहास

जोगणिया माता मंदिर की जानकारी व इतिहास

जोगणिया माता मंदिर

यदि आप भीलवाड़ा के जोगणिया माता मंदिर के दर्शन और इसके पर्यटक स्थल की जानकारी लेना चाहते हैं तो हमारे इस लेख को पूरा जरूर देखें जिसमें हम आपको जोगणिया माता मंदिर का इतिहास, दर्शन का समय और यात्रा से जुड़ी अन्य महत्वपूर्ण जानकारी के बारे में बताने वाले है –

जोगणिया माता मंदिर वीडियो

जोगणिया माता का मंदिर भीलवाड़ा जिले के मांडलगढ़ कस्बे से 24 किलोमीटर की दूरी पर भीलवाड़ा-बिजोलिया हाइवे से 5 किलोमीटर की दूरी पर उपरमाल पठार के दक्षिणी छोर पर प्रकृति की गोद में स्थित है । यहाँ से मात्र 3 किलोमीटर की दूरी पर राजस्थान का सबसे बडा जलप्रपात मेनाल जलप्रपात मौजूद है ।

जोगणिया माता का मंदिर तीन दिशाओं से अरावली पर्वतमाला की पहाड़ियों से घिरा हुआ है । मंदिर की दीवार के पश्चिम दिशा में सैकड़ों फिट गहरी खाई है और आगे विशाल जंगल फैला हुआ है । माता के मंदिर के चारो तरफ से घने जंगल फैले है वर्षा ऋतू में मंदिर से नीचे 300 फूट गहरे दर्रे में झरना गिरता है और बरसाती नदी बहती है ।

जोगणिया माता मंदिर से जुड़ी कथा के अनुसार पहले यहां अन्नपूर्णा देवी का मंदिर था, मंदिर से कुछ किलोमीटर की दूरी पर हाड़ा राजाओं का किला स्थिति है जहां देवा हाड़ा का राज था, एक बार देवा हाड़ा ने देवी अन्नपूर्णा को अपनी बेटी की शादी में आशीर्वाद देने के लिए आमंत्रित किया । देवी अन्नपूर्णा ने राजा की अपने प्रति आस्था की परीक्षा लेने के लिए जोगन का वेश धारण किया और विवाह समारोह में पहुँची । लेकिन देवी अन्नपूर्णा को इस रूप में किसी ने नहीं पहचाना, फलस्वरूप उन्हें यथेष्ट

सम्मान नहीं मिला ।

देवी अन्नपूर्णा ने क्रुद्ध होकर वहां से वापस चली गई और पुनः सुंदर युवती का रूप धारण कर समारोह में प्रवेश किया । समारोह में आये अनेकों राजा युवती के सौंदर्य पर मुग्ध हो गए और उसे अपने साथ ले जाने के लिए लड़ने लगे । आपस में भयंकर युद्ध हुआ और देवा हाड़ा स्वयं भी इस युद्ध में घायल हुआ और अपने राज्य से हाथ धो बैठा ।

तत्पश्चात देवा हाड़ा ने अन्नपूर्णा देवी की जोगणिया माता के रूप में तपस्या की जिसके बाद जोगणिया माता के आदेश पर बूंदी चला गया और मेवाड़ के महाराणा हम्मीर की सहायता से बूंदी में हाड़ा राजवंश की स्थापना की ।

देवा हाड़ा की पुत्री के विवाह में जोगन रूप धारण करने के बाद ही वे अन्नपूर्णा माता के बजाय जोगणिया माता के नाम से प्रसिद्ध हुई ।

JOGANIYA MATA MANDIR

एक अन्य जनश्रुति के अनुसार चोर डकैत किसी भी वारदात को अंजाम देने से पहले यहां माता का आशीर्वाद लेने भी आते हैं, यही नहीं चोर डकैत यहां माता की आज्ञा भ लेने आते हैं की वारदात को अंजाम देना है या नहीं ? इसके लिए वे माता के दोनों हाथों में एक एक फूल चढ़ाते हैं । ऐसी मान्यता है कि अगर अनुमति वाले हाथ का फूल गिरता है तो वह चोरी डकैती करने निकल जायेगा और पकड़ा नहीं जाएगा । यदि मनाही वाला फूल गिरता है तो माना जाता है कि माता ऐसा करने से मना कर रही है और वह यह चोरी टाल दे ।

चोर डकैत माता का आशीर्वाद प्राप्त कर ही चोरी के लिए निकलते हैं और उससे प्राप्त धन का एक हिस्सा माता को अर्पित करते हैं । मान्यता है कि ऐसा न करने वाले पर माता क्रोधित हो जाती है और उसे अंधा कर देती है ।

जोगणिया माता मंदिर के चारों तरफ सर्वसमाज की धर्मशालाए बनी हुई है तथा मंदिर में जाने का मुख्य मार्ग तो गुर्जर धर्मशाला के बीच से होकर गुजरता  है । जोगणिया माता मंदिर गर्भगृह के प्रवेश द्वार के बाहर दो सिंह प्रतिमा बनी हुई है तथा प्रवेश हेतु नीचे जाती सीढ़ियों पर द्वार बना है । इस मंदिर के नजदीक बने मंडप में प्राचीन सहस्त्रलिंग स्थापित है जिसके सामने भोलेनाथ का वाहन नदी विराजमान है । वर्तमान में जोगणिया माता का मूल मंदिर पूर्णरूपेण नया बनाया जा रहा है । मंदिर में जहां तहां मुर्गे दिखाई दे जाते है, मान्यता के अनुसार मनोकामना पूर्ण होने पर श्रद्धालुओं द्वारा भेट स्वरूप माता को मुर्गे अर्पित किये जाने की परम्परा है ।


जोगणिया माता दर्शनों के लिए नवरात्रि का समय सबसे उत्तम है इस समय यहां विशाल मेला लगता है । इसके अलावा सावन भादवा माह में लाखों श्रद्धालु पदयात्रा पर माता के दर्शनों के लिए आते हैं । इस समय मेनाल जलप्रपात भी अपने उफान पर रहता है, इसलिए पर्यटकों की भी यहां काफी भीड़ रहती है ।

जोगणिया माता की सम्पूर्ण राजस्थान, मध्यप्रदेश और गुजरात सहित सम्पूर्ण भारतवर्ष में गहन आस्था है ।


जोगणिया माताजी का मंदिर सुबह 6 बजे से रात के 9 बजे तक दर्शन के लिए खुला रहता है ।

JOGANIYA MATA MANDIR

जोगणिया माता मंदिर वीडियो

मवाड़ धरा के शक्ति पीठों में जोगणिया माता मंदिर का नाम मुख्य रुप से आता हैं । सभी माता भक्त पोस्ट को शेयर करें

चतुर चोर राजस्थानी लोककथा

 चतुर चोर राजस्थानी लोककथा

चतुर चोर
चतुर चोर


बहुत समय पहले की बात है एक छोटे से गांव में एक चोर रहता था, और वह बडा ही चतुर था । उसकी चतुराई देखकर लोग कहते थे कि यदि वह चाहे तो आदमी की आंखों का काजल तक उडा सकता है ।

एक दिन चोर ने सोचा कि जबतक वह राजधानी में नहीं जायेगा और लोगों को अपनी कलाकारी नहीं दिखायेगा, तबतक चोरों के बीच उसकी धाक नहीं जमेगी । यह सोचकर वह राजधानी की ओर रवाना हुआ और वहां पहुंचकर उसने शहर का चक्कर लगाया और जांच परख की, की वह अपना काम कहाँ कर सकता है ।

आखिर उसने तय किया कि वह राजा के महल से अपना काम शुरू करेगा । राजा ने अपने महल की रखवाली के लिए बहुत से सिपाही तैनात कर रखे थे । बिना सैनिकों की नजर में आये, एक परिन्दा भी महल में नहीं घुस सकता था ।

चोर ने यही पर अपनी कलाकारी दिखाने का मन बनाया । चोर ने देखा कि महल की ऊपरी मीनार पर एक बहुत बडी घड़ी लगी थी, जो समय बताने के लिए हर घंटे, जितने बजते थे उतने घंटे बजाती थी । चोर ने दिन में लोहे की कुछ कीलें इकट्ठी की और जब रात को घड़ी ने बारह बजाये तो घंटे की हर आवाज के साथ वह महल की दीवार में एक एक कील ठोकता गया । इस तरह बिना किसी तरह का शोर किये उसने महल की दीवार में बारह कीलें लगा दीं, फिर उन्हें पकड़ पकड़कर वह ऊपर चढ़ गया और महल में दाखिल हो गया । इसके बाद वह छुपते छुपाते खजाने में गया और वहां से बहुत से हीरे चुरा लाया ।

अगले दिन जब राजा को चोरी का पता लगा तो राजा बडा हैरान और नाराज हुआ । उसने सेनापति को आज्ञा दी कि शहर की सड़कों पर गश्त करने वाले सिपाहियों की संख्या दूनी कर दी जाये और अगर रात के समय किसी को भी बेवजह घूमते हुए पाया जाये तो उसे चोर समझकर गिरफ्तार कर लिया जाये ।

जिस समय दरबार में यह ऐलान हो रहा था, एक नागरिक के भेष में चोर वहीं मौजूद था । उसने उनकी सारी योजना सुनी जिससे उसे यह भी मालूम हो गया कि कौन से सिपाही शहर में गश्त के लिए चुने गये हैं । वह वहां से अपने अड्डे पर गया और साधु का वेष धारण करके उन सभी सिपाहियों की बीवियों से जाकर मिला । उनमें से हरएक की पत्नी चाहती थी कि उसका पति ही चोर को पकड़े और राजा से इनाम ले ।

एक एक करके चोर उन सभी औरतों के पास गया और उनके हाथ देखकर बताया कि वह रात उसके लिए बडी शुभ है । उसके पति की पोशाक में चोर उसके घर आयेगा, लेकिन, देखो चोर को अपने घर के अंदर मत आने देना, नहीं तो वह तुम्हें मार देगा । घर के सारे दरवाजे बंद कर लेना और भले ही वह चोर तुम्हारे पति की आवाज में बोलता सुनाई दे, उसका विश्वास मत करना और उसके ऊपर जलते हुए कोयले फेंकना । इसका नतीजा यह होगा कि चोर पकड़ में आ जायेगा । और हां यह बात अपने पति को नहीं बतानी है ।

सारी स्त्रियां रात को चोर के आगमन के लिए तैयार हो गईं । अपने पतियों को उन्होंने इसकी जानकारी नहीं दी । इस बीच पति अपनी गश्त पर चले गये और सवेरे चार बजे तक पहरा देते रहे । हालांकि अभी अंधेरा था, लेकिन उन्हें उस समय तक इधर उधर कोई भी दिखाई नहीं दिया तो उन्होंने सोचा कि उस रात को चोर नहीं आयेगा, यह सोचकर उन्होंने अपने घर चले जाने का फैसला किया । ज्यों ही वे घर पहुंचे, स्त्रियों को संदेह हुआ और उन्होंने चोर की बताई कार्रवाई शुरू कर दी । फल यह हुआ कि सिपाही बुरी तरह जल गये ओर बडी मुश्किल से अपनी स्त्रियों को विश्वास दिला पाये कि वे ही उनके असली पति हैं और उनके लिए दरवाजा खोल दिया जाये । सारे सैनिकों के जल जाने के कारण उन्हें अस्पताल ले जाया गया ।

दूसरे दिन राजा दरबार में आया तो उसे सारा हाल सुनाया गया । सुनकर राजा बहुत चिंतित हुआ और उसने सेनापति को आदेश दिया कि आज रात वह स्वयं जाकर चोर पकड़े ।

उस रात सेनापति ने राजा के आदेशानुसार शहर का पहरा देना शुरू किया । जब वह एक गली में जा रहा था, चोर उसके सामने लड़की का वेष धरकर आ गया । सेनापति ने लड़की से पूंछा रात के इस समय कहाँ जा रही हो कौन हो तुम ?

चोर ने जवाब दिया ″मैं चोर हूँ ।″

सेनापति ने समझा कि लड़की उसके साथ मजाक कर रही है । उसने कहा ″मजाक छोड़ो ! और अगर तुम चोर हो तो मेरे साथ आओ, मैं तुम्हें काठ में डाल दूंगा ।″

लड़की बना चोर बोला ″ठीक है । इससे मेरा क्या बिगड़ेगा ?″ और वह सेनापति के साथ काठ डालने की जगह पर पहुंचा, वहां जाकर चोर ने कहा ″ सेनापति जी ! इस काठ को आप इस्तेमाल कैसे किया करते हैं ? मेहरबानी करके मुझे समझा दीजिए ।″

सेनापति ने कहा “ तुम्हारा क्या भरोसा ! मैं तुम्हें बताऊं और तुम भाग गई तो ?″

लड़की बना चोर बोला ″आपके बिना कहे मैंने अपने को आपके हवाले कर दिया है । मैं भाग क्यों जाऊँगी ?″

सेनापति उसे यह दिखाने के लिए राजी हो गया कि काठ कैसे डाला जाता है । ज्यों ही उसने अपने हाथ-पैर काठ में डाले, चोर ने झट चाबी घुमाकर काठ का ताला बंद कर दिया और सेनापति को राम-राम करके चल दिया । सेनापति समझ गया कि लड़की के भेष में यही चोर है, पर अब क्या हो सकता था ।

जाड़े की रात थी । दिन निकलते-निकलते सेनापति मारे सर्दी के अधमरा हो गया । सवेरे जब सिपाही बाहर आने लगे तो उन्होंने देखा कि सेनापति काठ में फंसे पड़े हैं । उन्होंने उनको निकाला और अस्पताल ले गये ।

अगले दिन जब दरबार लगा तो राजा को रात का सारा किस्सा सुनाया गया । राजा इतना हैरान हुआ कि उसने उस रात चोर की निगरानी स्वयं करने का निश्चय किया । चोर उस समय भी दरबार में मौजूद था और सारी बातें सुन रहा था ।

रात होने पर उसने साधु का भेष बनाया और नगर के सिरे पर एक पेड़ के नीचे धूणी जलाकर बैठ गया ।

इधर रात होते ही राजा ने गश्त शुरू की और दो बार साधु के सामने से गुजरा ।

तीसरी बार जब वह उधर आया तो उसने साधु से पूछा कि ″क्या इधर से किसी अजनबी आदमी को जाते उसने देखा है ?″

साधु ने जवाब दिया कि “ वह तो अपने ध्यान में लगा था, अगर उसके पास से कोई निकला भी होगा तो उसे पता नहीं । यदि आप चाहें तो मेरे पास बैठ जाइए और देखते रहिए कि कोई आता-जाता है या नहीं ।″

यह सुनकर राजा के दिमाग में एक उपाय आया और उसने फौरन तय किया कि साधु उसकी पोशाक पहनकर शहर का चक्कर लगाये और वह साधु के कपड़े पहनकर वहां चोर की तलाश में बैठे ।

आपस में काफी बहस-मुबाहिसे और दो-तीन बार मना करने के बाद आखिर चोर राजा की बात मानने को राजी हो गया और उन्होंने आपस में कपड़े बदल लिये ।

चोर तत्काल राजा के घोड़े पर सवार होकर महल पहुँचा और राजा के सोने के कमरे में जाकर आराम से सो गया । इधर बेचारा राजा साधु बना चोर को पकड़ने के लिए इंतजार करता रहा । सवेरे के कोई चार बजने आये । राजा ने देखा कि न तो साधु लौटा और कोई आदमी या चोर उस रास्ते से गुजरा, तो उसने महल में लौट जाने का निश्चय किया ।

लेकिन जब वह महल के फाटक पर पहुंचा तो संतरियों ने सोचा “ राजा तो पहले ही आ चुका है, हो न हो यह चोर है ! जो राजा का वेश बनाकर महल में घुसना चाहता है । उन्होंने राजा को पकड़ लिया और काल कोठरी में डाल दिया । राजा ने शोर मचाया, पर किसी ने भी उसकी बात न सुनी ।“

दिन का उजाला होने पर काल कोठरी का पहरा देने वाले संतरी ने राजा का चेहरा पहचान लिया और मारे डर के थरथर कांपने लगा । वह राजा के पैरों पर गिर पड़ा । राजा ने सारे सिपाहियों को बुलाया और महल में गया । उधर चोर, जो रात भर राजा के रुप में महल में सोया था, सूरज की पहली किरण फूटते ही, राजा की पोशाक में और उसी के घोड़े पर रफूचक्कर हो गया ।

अगले दिन जब राजा अपने दरबार में पहुंचा तो बहुत ही हताश था । उसने ऐलान किया कि अगर चोर उसके सामने उपस्थित हो जायेगा, तो उसे माफ कर दिया जायेगा और उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जायेगी, बल्कि उसकी चतुराई के लिए उसे इनाम भी मिलेगा ।

चोर जो की पहले से वहां मौजूद था ही, फौरन राजा के सामने आ गया ओर बोला, “ महाराज, मैं ही वह अपराधी हूँ । मैं अपनी कलाकारी दिखाने के लिए यह सब कर रहा था ।″ इसके साथ ही उसने सबूत के रूप में उसने राजा के महल से जो कुछ चुराया था, वह सब सामने रख दिया, साथ ही राजा की पोशाक और उसका घोड़ा भी । राजा ने उसे गांव इनाम में दिये और वादा कराया कि वह आगे चोरी करना छोड़ देगा । इसके बाद से चोर खूब आनन्द से रहने लगा ।

तो दोस्तों आपको ये राजस्थानी लोककथा कैसी लगी कमेंट में बतायें ।

राजस्थानी लोक कथा भूत की मुसीबत

राजस्थानी लोककथा भूत की मुसीबत

भोला भूत की मुसीबत

भूत की मुसीबत
भूत की मुसीबत राजस्थानी लोककथा


सालों पहले एक छोटे से गांव में एक गरीब पंडित अपनी पत्नी शारदा के साथ रहा करता थानाम तो जाने क्या था पर गांव वाले मोठू महाराज के नाम से पुकारा करते थे । मोठू शिवजी का परम भक्त था । वह रोजाना स्नान ध्यान करके पूजा करता, उसके बाद ही अन्न-जल ग्रहण करता था । अपनी पत्नी शारदा के साथ गांव में ही जजमानी का काम करके जीवन यापन किया करता था, गांव भी छोटा ही था और किस्मत की बात है कि वह कितनी भी मेहनत करता फिर भी उसे आज तक एक दिन भी भरपेट खाना नही मिला

परंतु आज पड़ोस के गांव के सरपंच रामधन चौधरी के घर बेटा हुआ था और उसी खुशी में चौधरी साहब ने गांव भर में भोजन का न्योता दे दिया और पूरे गांव में मुनादी करवा दी कि कल किसी के यहां चूल्हा नहीं जलेगा, सभी चौधरी साहब की कोठी पर भोजन करेंगे ।

यह सुनते ही मोठु महाराज की खुशी का ठिकाना नहीं रहा, उसने शारदा से कहा कि “ वह जरूर जाएगा, और पहली बार भरपेट भोजन करेगा ।“ लेकिन साथ ही उसी अपनी गरीबी याद आई और शारदा से बोला “ न तो उसके पास कोठी पर जाने लायक कपड़े है और न ही बच्चे को देने के लिए लिए उपहार !”

शारदा ने तुरन्त मोठु महाराज के पुराने कपड़े सील दिए और साफ पानी से धो दिए, फिर मोठु से बोली “ मैंने आपके कपड़े धो डाले है, आप उन्हें पहनकर अच्छे से जाईये, चौधरी साहब बडे आदमी है, उन्हें बच्चे के लिए आपका आशीर्वाद ही चाहिए ।“

रात भर मोठु महाराज स्वादिष्ट भोजन के सपने देखे और दूसरे दिन सुबह जल्दी उठकर नहाया और शिवजी की पूजा की, थोड़ा गुड़ खाया और पानी पीकर, चौधरी साहब की कोठी की ओर चल पड़ा ।

मोठु महाराज को कोठी तक पहुंचने में शाम हो गई, कोठी में चारों तरफ स्वादिष्ट खाने की खुशबू फैली हुई थी कोठी में लोगों की भीड़ लगी हुई थी बडी मुश्किल से मोठु महाराज को खाने की जगह मिली, परंतु जहां जगह मिली वहां ऊपर दही की हांडी लटकी हुई थी । मोठु महाराज ने सोचा “ मुझे कौनसा खड़ा होकर खाना है ?”

मोठु महाराज ने खाना शुरू कर दिया, इससे बढ़िया खाने की वह कल्पना भी नहीं कर सकता था । अभी वह खाने का आंनद ले ही रहा था कि किसी आते जाते का सिर दही की हांडी से टकराया और हांडी टूटकर मोठु महाराज की पत्तल में आ गिरी, सारा खाना खराब हो गया । दुखी मन से वह उठा और पत्तल उठाकर चल दिया ।

मोठु दुखी मन से घर की ओर जा रहा था, रास्ते में चौधरी साहब ने मोठु को देखकर पूंछा “ मोठु महाराज ! खाना ठीक से खाया ना ?”

मोठु ने पूरा वाकया चौधरी साहब को कह सुनाया, जिसे सुनकर चौधरी साहब मुस्कुराये और मोठु महाराज से रात यहीं रुकने का अनुरोध किया और कहा कि कल वे अपनी निगरानी में भोजन बनवायेंगे और उन्हें भरपेट भोजन करवायेंगे ।

मोठु इसके लिए राजी हो गया और रात भर यही सोचता रहा कि सुबह एक बार फिर स्वादिष्ट खाना खाने को मिलेगा । उसने तय किया कि चाहे कुछ भी हो जाये इस बार तो पूरा पेट भरकर खाना खाऊंगा ।

यही सोचते हुए सुबह उठा और नाहा धोकर पूजा अर्चना की और खाना खाने के लिए तैयार हो गया इधर चौधरी साहब ने अपनी देखरेख में भोजन तैयार करवाया और मोठु महाराज को परोस दिया

मोठु महाराज अपने आप को काफी भाग्यशाली महसूस कर रहे थे, क्योंकि आज वो खास मेहमान थे और इतना स्वादिष्ट भोजन केवल उनके लिए बना था । खूब जमकर खाना खाया जा रहा था, जिंदगी में पहली बार उनका पेट तो भर गया पर मन नहीं भरा । खाना और बातें चल ही रही थी ।

इधर चौधरी जी की कोठी के बाहर चौक में पीपल के वृक्ष पर भोला भूत अपनी पत्नी और बेटे के साथ रहता था, भोला बडा शैतान भूत था, उसने मोठु महाराज को काफी देर से खाना खाते देखा तो एक शरारत सूझी । उसने खुद को एक मेंढक में बदला और मोठु महाराज को डराने के लिए पत्तल में रखी दाल में कूद गया ।

इधर मोठु बातों और स्वादिष्ट खाने में इतना मग्न था कि उसे मेंढक के कूदने का पता ही नहीं चला और मेंढक को दाल के साथ पेट में निगल गया । भरपेट भोजन से तृप्त हो कर, और चौधरी साहब से दान दक्षिणा लेकर मोठु खुशी खुशी घर को निकल गया ।

इधर मेंढक बने भोला भूत ने मोठु के पेट में कूद फांद की, बेचारे मोठु ने सोचाजिंदगी में पहली बार भरपेट भोजन किया है इसलिए पेट में अगड़म-बगड़म हो रही है ।“ जब मोठु को कोई फर्क नहीं पड़ा तो भोला भूत ने पेट में गुदगुदी करना शुरू किया । मोठु ने हँसते हुए शिवजी को धन्यवाद दिया कि भगवान बडे दिनों बाद हँसाया ।

इधर भोला भूत परेशान हो गयाये क्या हो रहा है ? मैंने इसके पेट में इतनी उछल कूद की, गुदगुदी की पर इसे कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा ? तो यहां मेरा क्या काम ? उसने सोचा अब मुझे चलना चाहिए ।

परेशान भोला भूत ने आवाज लगाईमुझे जाने दो मोठु ने सोचा पीछे से कोई आवाज दे रहा होगा, जब कोई दिखाई नहीं दिया तो आगे बढ़ गया । कुछ देर बाद भूत थोड़ा जोर से बोला “ मुझे जाने दो “ इस बार मोठु डर गया और शिवजी को याद करके भागने लगा ।

इस पर भूत जोर से बोला “ महाराज ! मैं भोला भूत हूँ, और मैं आपके पेट में हूँ । गलती से चला गया, अब बाहर निकलना चाहता हूँ ।“ यह सुनकर मोठु महाराज की घिग्गी बंध गई और घबराकर भागने लगे, इससे पेट में भूत की सांसें भी फूलने लगी, गांव के नजदीक पहुंचकर मोठु का डर थोड़ा कम हुआ तो उसे भोला भूत पर बडा गुस्सा आया और बड़बड़ाते हुए बोला “ तुम मेरे पेट में गये क्यों ? अब परेशान हो रहे हो तो मुझे क्या ?”

घर पहुंचकर शारदा को बुलाया और कहा “ मेरा हुक्का गर्म करके लाओ, अभी इसे सबक सिखाता हूँ !” देखते ही देखते हुक्का आ गया और मोठु ने हुक्के को जोर से गुड़गुडाया और धुंए का कश लिया । दो तीन गुड़गुड़ाहट के बाद धुंआ भूत की आँखों और नाक में घुस गया, पेट में भूत का खासते खासते बुरा हाल हो गया, आँखों से लगातार आसुँ निकल रहे थे, अब भोला भूत अपनी शरारत पर पछता रहा था ।

इधर जब काफी देर तक भोला भूत वापस नहीं लौटा तो उसकी पत्नी और बेटा परेशान हो गए और भूतनी ने एक लड़की का रूप बनाया और मोठु महाराज के घर पहुंची मोठु महाराज से हाथ जोडकर अपने पति की गलती की माफी मांगी और आजादी की गुहार लगाई ।

भूतनी को देखते ही मोठु का गुस्सा भड़क गया और पास ही रखा डंडा जोर से जमीन पर पटका और भूतनी की तरफ मारने दौड़ा “ उस समय कहाँ थी ? जब तुम्हारा पति मेरे पेट में गया ! मेरा धर्म भ्रष्ट कर दिया और जब से पेट में गया है मुझे परेशान कर रहा है । मैंने तो ये डंडा रखा ही इसीलिए है कि इसने जरा सा निकलने की कोशिश की तो डंडे से मार मारकर भुर्ता बना दूँगा । अब तुम यहाँ से भाग जाओ नहीं तो तुम्हारा भी यही हाल करूँगा । बडी आई भूत की वकालात करने, मेरे पेट में मुझे पूँछकर गया था ?”

बेचारी भूतनी अपना सा मुह लेकर लौट गई ।

माँ को अकेले देखकर बेटा समझ गया कि पिताजी को लाने में मां को कामयाबी नहीं मिली । छोटे भूत ने मां से कहां “ मां ! आप रुको इस बार मैं पिताजी को लेने जाता हूँ ।

छोटे भूत ने एक मासमू बच्चे का रूप बनाया और मोठु के घर पहुंचा, उसने हाथ जोड़कर मोठु से विनती की “ मेरे पिताजी को छोड़ दो । बच्चे को देखकर भी मोठु का गुस्सा शांत नहीं हुआ, उसने फिर अपना डंडा उठाया और बच्चे की तरफ भागाछोटा भूत तो सरपट भाग गया, पर पेट में भोला भूत को अपनी शैतानी पर बहुत गुस्सा और शर्म रही थी

जब छोटे भूत ने देखा कि इस तरह उसकी दाल नहीं गल रही है तो उसने एक उपाय सोचा और उसने ख़ुद को एक मच्छर के रूप में ढाला और पहुंच गया फिर मोठु के पास ।

अब छोटे भूत ने भी शरारत शुरू कर दी । कभी मोठु के गाल को काटता तो कभी नाक पर, मोठु उसे भगाने के लिए कभी अपने नाक पर तो कभी मुंह पर थप्पड़ मार लेता था । कभी मच्छर उसके सिर के आसपास, कभी उसके कान में घूं-घूं । मोठु जितना झल्लाता, मच्छर बना छोटा भूत उतना ही ज्यादा परेशान करता इसी तरह थोड़ी देर बाद मच्छर मोठु की नाक में घुस गया । अब तो मोठु की नाक में सुरसुरी- घुरघुरी सब होने लगी ।

आ... छीं... आ... छीं... करते-करते मोठु का बुरा हाल हो गया । इस बार छींक इतनी तेज़ थी, कि पेट मेंढक वाला भोला भूत मुंह के रास्ते बाहर कूद गया और बिना पीछे देखे छोटे भूत के साथ सरपट दौड़ लगा दी और पीपल के वृक्ष पर पहुंचकर सांस ली, और भविष्य में इस तरह की शरारत करने की कसम खा ली इधर मोठु महाराज ने भी चैन की सांस ली और गहरी नींद में खो गए

तो नमस्कार दोस्तों यह राजस्थानी लोककथा आपको कैसी लगी कमेंट करें ।


लिछमा बाई रो मायरो ( राजस्थानी लोककथा )