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चार बुद्धिमान भाई राजस्थानी लोककथा

चार बुद्धिमान भाई राजस्थानी लोककथा


एक नगर में चार भाई रहते थे । चारों ही भाई अक्ल के मामले में एक से बढ़कर एक थे । उनकी अक्ल के चर्चे आस-पास के गांवों व नगरों में फैले थे, उनमें से एक भाई का नाम सौ बुद्धि, दूजे का नाम हजार बुद्धि, तीसरे का नाम लाख बुद्धि, तो चौथे भाई का नाम करोड़ बुद्धि था ।

एक दिन चारों ने आपस में सलाह कर किसी बड़े राज्य की राजधानी में कमाने जाने का निर्णय किया । क्योंकि दूसरे बड़े नगर में जाकर अपनी बुद्धि से कमायेंगे तो उनकी बुद्धि की भी परीक्षा होगी और यह भी पता चलेगा कि हम कितने अक्लमंद है ? इस तरह चारों ने आपस में विचार विमर्श कर किसी बड़े शहर को जाने के लिए घोड़े तैयार कर चल पड़ते है ।

काफी रास्ता तय करने के बाद वे चले जा रहे थे कि अचानक उनकी नजर रास्ते में उनसे पहले गए किसी ऊंट के पैरों के निशानों पर पड़ी,

" ये जो पैरों के निशान दिख रहे है वे ऊंट के नहीं ऊँटनी के है ।" सौ बुद्धि निशान देख अपने भाइयों से बोला

" तुमने बिल्कुल सही कहा, ये ऊँटनी के ही पैरों के निशान है और ये ऊँटनी बायीं आँख से काणि भी है ।" हजार बुद्धि ने आगे कहा

लाख बुद्धि बोला " तुम दोनों सही हो, पर एक बात मैं बताऊँ ? इस ऊँटनी पर जो दो लोग सवार है उनमें एक मर्द व दूसरी औरत है ।“

करोड़ बुद्धि कहने लगा " तुम तीनों का अंदाजा सही है, और ऊँटनी पर जो औरत सवार है वह गर्भवती है ।"


अब चारों भाइयों ने ऊंट के उन पैरों के निशानों व आस-पास की जगह का निरीक्षण कर व देखकर अपनी बुद्धि लगा अंदाजा तो लगा लिया पर यह अंदाजा सही लगा या नहीं इसे जांचने के लिए आपस में चर्चा कर ऊंट के पैरों के पीछे-पीछे अपने घोड़ों को दौड़ा दिए, ताकि ऊंट सवार का पीछा कर उस तक पहुँच अपनी बुद्धि से लगाये अंदाजे की जाँच कर सके ।

थोड़ी ही देर में वे ऊंट सवार के आस-पास पहुँच गए । ऊंट सवार अपना पीछा करते चार घुड़सवार देख घबरा गया कहीं डाकू या बदमाश नहीं हो, सो उसने भी अपने ऊंट को दौड़ा दिया ।

ऊंट सवार अपने ऊंट को दौड़ाता हुआ आगे एक नगर में प्रवेश कर गया । चारों भाई भी उसके पीछे पीछे ही थ । नगर में जाते ही ऊंट सवार ने नगर कोतवाल से शिकायत की " मेरे पीछे चार घुड़सवार पड़े है कृपया मेरी व मेरी पत्नी की उनसे रक्षा करें ।"

पीछे आते चारों भाइयों को नगर कोतवाल ने रोक पूछताछ शुरू कर दी कि कही कोई लुटेरे तो नहीं ? पूछताछ में चारों भाइयों ने बताया कि वे तो नौकरी तलाशने घर से निकले है यदि इस नगर में कही कोई रोजगार मिल जाए तो यही कर लेंगे । कोतवाल ने चारों के हावभाव व उनका व्यक्तित्व देख सोचा ऐसे व्यक्ति तो अपने राज्य के राजा के काम के हो सकते है सो वह उन चारों भाइयों को राजा के पास ले आया, साथ उनके बारे में जानकारी देते हुए कोतवाल ने उनके द्वारा ऊंट सवार का पीछा करने वाली बात बताई ।

राजा ने अपने राज्य में कर्मचारियों की कमी के चलते अच्छे लोगों की भर्ती की जरुरत भी बताई पर साथ ही उनसे उस ऊंट सवार का पीछा करने का कारण भी पुछा

सबसे पहले सौ बुद्ध बोला " महाराज ! जैसे हम चारों भाइयों ने उस ऊंट के पैरों के निशान देखे अपनी-अपनी अक्ल लगाकर अंदाजा लगाया कि- ये पैर के निशान ऊँटनी के होने चाहिए, ऊँटनी बायीं आँख से काणि होनी चाहिए, ऊँटनी पर दो व्यक्ति सवार जिनमें एक मर्द दूसरी औरत होनी चाहिए और वो सवार स्त्री गर्भवती होनी चाहिए ।"

इतना सुनने के बाद तो राजा भी आगे सुनने को बड़ा उत्सुक हुआ, और उसने तुरंत ऊंट सवार को बुलाकर पुछा " तूं कहाँ से आ रहा था और किसके साथ ?"

ऊंट सवार कहने लगा " हे अन्नदाता ! मैं तो अपनी गर्भवती घरवाली को लेने अपनी ससुराल गया था वही से उसे लेकर आ रहा था ।"

राजा " अच्छा बता क्या तेरी ऊँटनी बायीं आँख से काणी है ?"

ऊंट सवार " हां ! अन्नदाता, मेरी ऊँटनी बायीं आँख से काणी है ।“

राजा ने अचंभित होते हुए चारों भाइयों से पुछा " आपने कैसे अंदाजा लगाया ? विस्तार से सही सही बताएं ।"

सौ बुद्धि बोला " उस पैरों के निशान के साथ मूत्र देख उसे व उसकी गंध पहचान मैंने अंदाजा लगाया कि ये ऊंट मादा है ।"

हजार बुद्धि बोला " रास्ते में दाहिनी और जो पेड़ पौधे थे ये ऊँटनी उन्हें खाते हुई चली थी पर बायीं और उसने किसी भी पेड़-पौधे की पत्तियों पर मुंह तक नहीं मारा, इसलिए मैंने अंदाजा लगाया कि जरुर यह बायीं आँख से काणी है इसलिए उसने बायीं और के पेड़-पौधे देखे ही नहीं तो खाती कैसे ?"

लाख बुद्धि बोला " ये ऊँटनी सवार एक जगह उतरे थे अतः: इनके पैरों के निशानों से पता चला कि ये दो जने है और पैरों के निशान भी बता रहे थे कि एक मर्द के है व दूसरे स्त्री के |"

आखिर में करोड़ बुद्धि बोला-" औरत के जो पैरों के निशान थे उनमें एक भारी पड़ा दिखाई दिया तो मैंने सहज ही अनुमान लगा लिया कि हो न हो ये औरत गर्भवती है ।"

राजा ने उनकी अक्ल पहचान उन्हें अच्छे वेतन पर अपने दरबार में नौकरी देते हुए फिर पुछा -

" आप लोगों में और क्या क्या गुण व प्रतिभा है ?"

सौ बुद्धि बोला " मैं जिस जगह को चुनकर तय कर बैठ जाऊं तो किसी द्वारा कैसे भी उठाने की कोशिश करने पर नहीं उठूँ ।"

हजार बुद्धि " मुझमे भोज्य सामग्री को पहचानने की बहुत बढ़िया प्रतिभा है ।"

लाख बुद्धि " मुझे बिस्तरों की बहुत बढ़िया पहचान है ।"

करोड़ बुद्धि " मैं किसी भी रूठे व्यक्ति को चुटकियों में मनाकर ला सकता हूँ ।"

राजा ने मन ही मन एक दिन उनकी परीक्षा लेने की सोची । एक दिन सभी लोग महल में एक जगह एक बहुत बड़ी दरी पर बैठे थे, साथ में चारों अक्ल बहादुर भाई भी,  राजा ने हुक्म दिया कि “ इस दरी को एक बार उठाकर झाड़ा जाय, दरी उठने लगी तो सभी लोग उठकर दरी से दूर हो गए पर सौ बुद्धि दरी पर ऐसी जगह बैठा था कि वह अपने नीचे से दरी खिसकाकर बिना उठे ही दरी को अलग कर सकता था सो उसने दरी का पल्ला अपने नीचे से खिसकाया और बैठा रहा । राजा समझ गया कि ये उठने वाला नहीं ।


शाम को राजा ने भोजन पर चारों भाइयों को आमंत्रित किया और भोजन करने के बाद चारों भाइयों से भोजन की क्वालिटी के बारे में पुछा ।

तीन भाइयों ने भोजन के स्वाद उसकी गुणवत्ता की बहुत सरहना की पर हजार बुद्धि बोला " माफ़ करें हुजूर ! खाने में चावल में गाय के मूत्र की बदबू थी ।"

राजा ने रसोईघर के मुखिया से पुछा " सच सच बता कि चावल में गौमूत्र की बदबू कैसे ?”

रसोई घर का हेड कहने लगा " गांवों से चावल लाते समय रास्ते में वर्षा आ गयी थी सो भीगने से बचाने को एक पशुपालन के बाड़े में गाडियां खड़ी करवाई थी, वहीं चावल पर एक गाय ने मूत्र कर दिया था, हुजूर मैंने चावल को बहुत धुलवाया भी पर कहीं से थोड़ी बदबू रह ही गयी ।"


हजार बुद्धि की भोजन पारखी प्रतिभा से राजा बहुत खुश हुआ और रात्रि को सोते समय चारों भाइयों के लिए गद्दे राजमहल से भिजवा दिए । जिन पर चारों भाइयों ने रात्रि विश्राम किया ।

सुबह राजा के आते ही लाख बुद्धि ने कहा " बिस्तर में खरगोश की पुंछ है जो रातभर मेरे शरीर में चुभती रही ।"

राजा ने बिस्तर फड़वाकर जांच करवाई तो उसने वाकई खरगोश की पुंछ निकली, राजा लाख बुद्धि के कौशल से भी बड़ा प्रभावित हुआ ।


पर अभी करोड़ बुद्धि की परीक्षा बाकी थी, सो राजा ने रानी को बुलाकर कहा " करोड़ बुद्धि की परीक्षा लेनी है आप रूठकर शहर से बाहर बगीचे में जाकर बैठ जाएं करोड़ बुद्धि आपको मनाने आयेगा पर किसी भी सूरत में मानियेगा मत ।"

और रानी रूठकर बाग में जा बैठी, राजा ने करोड़ बुद्धि को बुला रानी को मनाने के लिए कहा ।

करोड़ बुद्धि बाजार गया वहां से पड़ले का सामान व दुल्हे के लिए लगायी जाने वाली हल्दी व अन्य शादी का सामान ख़रीदा और बाग के पास से गुजरा वहां रानी को देखकर उससे मिलने गया ।

रानी ने पुछा " ये शादी का सामान कहाँ ले जा रहे है ।"

करोड़ बुद्धि बोला " आज राजा जी दूसरा ब्याह रचा रहे है यह सामान उसी के लिए है, राजमहल ले कर जा रहा हूँ ।“

रानी ने पुछा " क्या सच में राजा दूसरी शादी कर रहे है ?"

करोड़ बुद्धि " सही में ऐसा ही हो रहा है तभी तो आपको राजमहल से दूर बाग में भेज दिया गया है ।"

इतना सुन राणी घबरा गयी कि कहीं वास्तव में ऐसा ही ना हो रहा हो, और वह तुरंत अपना रथ तैयार करवा करोड़ बुद्धि के आगे आगे महल की ओर चल दी ।

महल में पहुँच करोड़ बुद्धि ने राजा को अभिवादन कर कहा " महाराज ! राणी को मना लाया हूँ ।"

राजा ने देखा रानी सीधे रथ से उतर गुस्से में भरी उसकी और ही आ रही थी, और आते ही राजा से लड़ने लगी कि " आप तो मुझे धोखा दे रहे थे, पर मेरे जीते जी आप दूसरा ब्याह नहीं कर सकते ।"

राजा भी राणी को अपनी सफाई देने में लग गया ।

और इस तरह चारों अक्ल बहादुर भाई राजा की परीक्षा में सफल रहे ।

चार आने का हिसाब हिंदी लोककथा

चार आने का हिसाब लोककथा

चार आने का हिसाब



बहुत समय पहले की बात है, चंदनपुर का राजा बड़ा प्रतापी था, दूर-दूर तक उसके राज्य की समृध्दि के चर्चे होते थे, उसके महल में हर एक सुख-सुविधा की वस्तु उपलब्ध थी पर फिर भी अंदर से उसका मन अशांत रहता था ।

उसने कई ज्योतिषियों और पंडितों से इसका कारण जानना चाहा, किसी ने उसे कोई अंगूठी पहनाई तो किसी ने यज्ञ कराए, पर फिर भी राजा का दुःख दूर नहीं हुआ, उसे शांति नहीं मिली ।

एक दिन भेष बदल कर राजा अपने राज्य की सैर पर निकला । घूमते-घूमते वह एक खेत के निकट से गुजरा, तभी उसकी नज़र एक किसान पर पड़ी, किसान ने फटे-पुराने वस्त्र धारण कर रखे थे और वह पेड़ की छाँव में बैठ कर भोजन कर रहा था ।

किसान के वस्त्र देख राजा के मन में आया कि वह किसान को कुछ स्वर्ण मुद्राएं दे दे ताकि उसके जीवन में कुछ खुशियां आ पाये ।

राजा ने किसान से कहा ” मैं एक राहगीर हूँ ! मुझे तुम्हारे खेत पर ये चार स्वर्ण मुद्राएँ गिरी मिलीं है, क्योंकि यह खेत तुम्हारा है इसलिए ये मुद्राएं तुम ही रख लो ।“

किसान ने गर्दन हिलाते हुए कहा ” ना – ना सेठ जी ! ये मुद्राएं मेरी नहीं हैं, इसे आप ही रखें या किसी और को दान कर दें, मुझे इनकी कोई आवश्यकता नहीं ।“

किसान की यह प्रतिक्रिया राजा को बड़ी अजीब लगी, वह बोला ” धन की आवश्यकता किसे नहीं होती भला आप लक्ष्मी को ना कैसे कर सकते हैं ?”

“ सेठ जी ! मैं रोज चार आने कमा लेता हूँ, और उतने में ही प्रसन्न रहता हूँ… !“, किसान बोला

“ क्या ? आप सिर्फ चार आने की कमाई करते हैं, और उतने में ही प्रसन्न रहते हैं, यह कैसे संभव है ?” , राजा ने अचरज से पुछा

” सेठ जी !” किसान बोला “ प्रसन्नता इस बात पर निर्भर नहीं करती की आप कितना कमाते हैं या आपके पास कितना धन है, प्रसन्नता उस धन के प्रयोग पर निर्भर करती है ।“

” तो तुम इन चार आने का क्या-क्या कर लेते हो ?” राजा ने उपहास के लहजे में प्रश्न किया

किसान भी बेकार की बहस में नहीं पड़ना चाहता था उसने आगे बढ़ते हुए उत्तर दिया ” इन चार आनो में से एक मैं कुएं में डाल देता हूँ, दूसरे से कर्ज चुका देता हूँ, तीसरा उधार में दे देता हूँ और चौथा मिट्टी में गाड़ देता हूँ ।”

राजा सोचने लगा, उसे यह उत्तर समझ नहीं आया । वह किसान से इसका अर्थ पूछना चाहता था, पर वो जा चुका था ।

राजा ने अगले दिन ही सभा बुलाई और पूरे दरबार में कल की घटना कह सुनाई और सबसे किसान के उस कथन का अर्थ पूछने लगा ।

दरबारियों ने अपने-अपने तर्क पेश किये पर कोई भी राजा को संतुष्ट नहीं कर पाया, अंत में किसान को ही दरबार में बुलाने का निर्णय लिया गया ।

बहुत खोज-बीन के बाद किसान मिला और उसे कल की सभा में प्रस्तुत होने का निर्देश दिया गया ।

राजा ने किसान को उस दिन अपने भेष बदल कर भ्रमण करने के बारे में बताया और सम्मान पूर्वक दरबार में बैठाया ।

” मैं तुम्हारे उत्तर से प्रभावित हूँ, और तुम्हारे चार आने का हिसाब जानना चाहता हूँ, बताओ, तुम अपने कमाए चार आने किस तरह खर्च करते हो जो तुम इतना प्रसन्न और संतुष्ट रह पाते हो ?” राजा ने प्रश्न किया

किसान बोला ” हुजूर ! जैसा की मैंने बताया था, मैं एक आना कुएं में डाल देता हूँ, यानी अपने परिवार के भरण-पोषण में लगा देता हूँ, दूसरे से मैं कर्ज चुकता हूँ, यानी इसे मैं अपने वृद्ध माँ-बाप की सेवा में लगा देता हूँ, तीसरा मैं उधार दे देता हूँ, यानी अपने बच्चों की शिक्षा-दीक्षा में लगा देता हूँ, और चौथा मैं मिट्टी में गाड़ देता हूँ, यानी मैं एक पैसे की बचत कर लेता हूँ ताकि समय आने पर मुझे किसी से माँगना ना पड़े और मैं इसे धार्मिक ,सामाजिक या अन्य आवश्यक कार्यों में लगा सकूँ ।“

राजा को अब किसान की बात समझ आ चुकी थी । राजा की समस्या का समाधान हो चुका था, वह जान चुका था की यदि उसे प्रसन्न एवं संतुष्ट रहना है तो उसे भी अपने अर्जित किये धन का सही-सही उपयोग करना होगा ।

मित्रों, देखा जाए तो पहले की अपेक्षा लोगों की आमदनी बढ़ी है पर क्या उसी अनुपात में हमारी प्रसन्नता भी बढ़ी है ? यकीनन नहीं !

पैसों के मामलों में हम कहीं न कहीं गलती कर रहे हैं , लाइफ को बैलेंस बनाना ज़रूरी है और इसके लिए हमें अपनी आमदनी और उसके इस्तेमाल पर ज़रूर गौर करना चाहिए, नहीं तो भले हम लाखों रुपये कमा लें पर फिर भी प्रसन्न एवं संतुष्ट नहीं रह पाएंगे !

लिछमा बाई रो मायरो

 राजस्थानी ऐतिहासिक कथा लिछमा बाई रो मायरो




उस समय की बात है जब भारतवर्ष में मुगल बादशाह का राज था । नागौर में जायल और खिंयाला दो पड़ौसी रियासत हुआ करती थी । जिनमें दो चौधरी ( जाट ) नम्बरदार हुआ करते थे । नाम था गोपाल जी और धर्मो जी । गोपाल जी जायल गांव के बासट गौत्र के जाट और धर्मो जी खिंयाला के बिडियासर जाट । दोनों चौधरी उस समय दिल्ली के बादशाहों के लिए लगान संग्रहण करने का कार्य किया करते थे ।


वे साल में एक बार किसानों से निर्धारित रकम वसूला करते और बादशाह तक पहुंचा दिया करते और बदले में अपनी तनख्वाह ले लिया करते थे ।


हमेशा की तरह इस बार भी दोनों चौधरीयों ने लगान इकट्ठा किया और ऊंटों पर रकम लाद कर बादशाह को सौंप देने दिल्ली के लिए रवाना हुए । रास्ता लम्बा था और चोर-लुटेरों के हमलों से बचने के लिए दोनों ने बंजारों का रूप धारण कर लिया ।


शाम ढलने तक दोनों जयपुर के नजदीक हरमाड़ा नाम के एक गांव तक पहुंचे । दिन भर चलते चलते दोनों थक चुके थे, इसलिए हरमाड़ा गांव के पास चौधरियों ने डेरा जमाया । गोपाल जी तालाब में ऊंटों को पानी पिलाने गए और धर्मोजी पीतल की गगरी लेकर कुवे पर पानी लेने गये ।



दैवयोग से उसी दौरान गांव की गुर्जर जाति की एक सामान्य सी गृहिणी, लिछमा गुर्जरी । अपनी जेठानियों की पुत्रियों के साथ अपनी पुत्री के विवाह के प्रबंध में लगी थी । लेकिन विवाह के उत्साह से बिल्कुल परे वह आकुल, व्याकुल, दुविधाग्रस्त थी । कारण ये था कि पीहर में उसका कोई भाई नहीं था, और माता पिता भी इतने बूढ़े हो चुके थे की जो उसकी पुत्री के विवाह में भात भरने के लिए नहीं आ सकते थे ।


भात या मायरा राजस्थान की प्रथा है जिसमें विवाह के सुअवसर पर मातुल पक्ष के लोग सामर्थ्यानुसार वस्त्र, आभूषण आदि कुछ उपहार ले कर प्रस्तुत होते हैं ।


लेकिन उपहार और सहायता के नाम पर चली ये परम्परा धीरे धीरे प्रतिष्ठा का प्रश्न बन महिलाओं के लिए गले की फांस बन गयी ।

अब हालात ये है कि जब तक मायके से मायरा आ न जाए, तब तक ना तो नारी चिंता मुक्त हो पाती थी और ना ही कुल कुटुम्ब उसे चैन की सांस लेने देते थे । भात में कितने पैसे आए ? कौन कौन से आभूषण आए ? किस भाँति के वस्त्र आए इत्यादि प्रश्नों के उत्तर आने वाले कई दिन-महीनों-सालों तक ससुराल में नारी की प्रतिष्ठा और महत्त्व को निर्धारित करते थे । भात कम आने का अर्थ ही जहाँ जीवन भर सास-ननद, देवरानी-जेठानी आदि के ताने हुआ करता हो, वहाँ भात नहीं आने पर क्या हाल हो सकता है ? कल्पना सहज ही की जा सकती है ।


अगले दिन विवाह का कार्यक्रम निश्चित था । जेठानीयों की पुत्रियों का भी विवाह था । उनका भी भात कल ही आना था, वे दोनों अपने अपने पिता-भाई और भात के स्वागत का प्रबंध कर रही थीं ।


ऐसे में लिछमा स्वयं को दुर्भाग्यशाली न समझे तो क्या करे । मां के जाए बीर बिना कुण भात भरण ने आवे ! आंसू आंखों की कोर में तैर रहे थे, छलके नहीं । क्योंकि अभी तक इस प्रसंग पर चर्चा हुई नहीं थी । लिछमा को लगा- मेरे मायके की स्थिति सर्वज्ञात है, हो सकता है इसी से मुझे मायरे से मुक्ति दे दी गई हो ।


लेकिन ऐसा थोड़े ही हुआ करता है । पंजाब में कहावत है- सांप में एक 'स', सास में दो 'स', सास ये मौका ऐसे ही थोड़े छोड़ देने वाली थी । सास समुदाय की प्राचीन एवं प्रचलित परम्परा का पूर्ण रूपेण निर्वहन । खुल कर तिक्त वचन सुनाए गए । भात बिना कोई विवाह हुआ है कभी जो तेरी बेटी का हो जाएगा, फूटे भाग हमारे जो तेरे जैसी बहु मिली, मर क्यों नहीं जाती कहीं जाकर !


अपमान के नमक से अंतर के घाव चिरमिरा उठे । लिछमा रोने लगी । मन में विचार आया-तिरस्कार सह कर जीने से तो अच्छा प्राण ही दे दिए जाएं । कौनसा सार बचा है जीवन में ।


पनघट से पानी लाने का बहाना बनाया, घड़ा उठाया और रोते रोते चल पड़ी । लिछमा पनघट पर बैठ के खुल के रोई, सोचा- मरना तो है ही, जी तो हल्का करूँ । राम जाने विधाता ने कैसे भाग लिखे हैं, जो कोई मेरा भी भाई होता तो आज मरने की नौबत थोड़े ही आती ।


और भाग्यवश, दैव योग से ही, लिछमा का रुदन पानी भरने आये धर्मो चौधरी के कानों में पड़ा । चौधरी रुदन सुन चौंका । सूर्य पश्चिम में ढल चुका है और रात्रि का अँधेरा गहराने लगा और ऐसे समय में पनघट के नजदीक स्त्री कण्ठ से रुदन की ध्वनि ? यह कौन दुखियारी है ?

धर्मोजी उठे और रुदन की आवाज सुनते हुए लिछमा तक पहुंचे और बोले “ पणिहारी ! रोती क्यों है ? कौन विपत्ति आन पड़ी ? मुझे बता, शायद मैं कुछ सहायता कर सकूँ ?


लिछमा ने सोचा इसे सुना कर ही क्यों न मरूँ, मरना तो है ही, जी तो हल्का हो । लिछमा ने चौधरी को सब कुछ कह सुनाया । चौधरी साहब व्यथा सुन व्याकुल हो गए और बोले- “ पणिहारी, कौन कहता है तेरा कोई भाई नहीं है, मुझे राखी बांध, मैं तेरा भाई हूँ ।“


लिछमा हिचकिचाई, चौधरी फिर बोला - लिछमा, चीर फाड़ के बांध कलाई पर, मैं तेरा धर्म का भाई हूँ । अब से तेरा सम्मान मेरा सम्मान । तेरी लाज मेरी लाज । तेरी व्यथा - मेरी व्यथा । भात की चिंता मत कर । भात मैं भरूँगा ।


चौधरी की जबान थी, लिछमा आश्वस्त हो गई ।



लिछमा के ओढ़नी के टुकड़े ने चौधरी की कलाई पर बन्ध कर भाई बहन के रिश्ते की नींव पड़ने की साख भरी । गूजरी दुःख की घड़ी में भाई का सा स्नेह पा बड़ी प्रसन्न हुई और घड़ा उठा घर की ओर चली ।

घर पहुंचने पर जब सास-ननद, जेठानी-देवरानी ने विष बुझे वचन शरों का वर्षण किया तब लिछमा ने आप बीती बताई और बोला कि सुबह मेरा भी धर्मभाई भात लेकर आने वाला है ।

लिछमा की बातें सुन सभी ने मजाक उड़ाया और बोला कि वो तो बंजारे है, उन्होंने तुम्हें बेवकूफ बनाया है, और सुबह तक यहाँ से चले भी जायेंगे । ऐसे कोई राह चलता किसी का माहिरा भरता है भला ?

लिछमा के पति ने भी उसे समझाया कि ऐसा नहीं होता और यदि उन बंजारों के पास ही माहिरा भरने के रुपये होते तो घरबार छोड़कर क्यों घूम रहे होते ? देखना सुबह तक वो अपनी राह पर आगे निकल जायेंगे ।


लेकिन लिछमा तो मन ही मन मुदित थी, प्रमुदित थी सो सब झेलती रही ।


उधर, धर्मोजी ने गोपालजी को सारा वृत्तांत सुनाया और कहा - वचन दे आया हूँ, सुबह भात भरना है । दूसरा चौधरी जबान की कीमत समझता था, भात भरने का कह दिया, मतलब भात तो भरना ही है ।


लेकिन, पैसे कहाँ से आएं ? ऊंटों पर जो रकम लदी है, वो तो मालगुजारी के पैसे हैं । बादशाह की अमानत। भारतवर्ष पर एकछत्र राज करने वाले बादशाह की अमानत और इस अमानत में खयानत करना यानी अपनी मौत को आमन्त्रित करना । रकम भी कोई छोटी मोटी नहीं थी, पूरी 22000 सोने अशर्फियाँ । ये खर्च करने पर बादशाह ज़िंदा तो नहीं छोड़ेगा । ये तो तय है । क्या किया जाए ?

लेकिन, वचन देकर पलट जायें, इससे अच्छा तो यही कि गर्दन कट जाये । हम वीर तेजाजी के वंशज है, “ प्राण जाय पर वचन न जाई “ भात तो भरेंगे । बादशाह जो करेगा, देखा जाएगा ।


चौधरियों ने रातों रात खूंटों से बंधे ऊंटों को खोला, सवार हुए और घण्टे भर में जा पहुंचे जयपुर । कुछ पुरानी पहचान और कुछ अशर्फियों की खनक ने आधी रात में दो चार दुकानें खुलवाई और मायरे के लिए उपहार, वस्त्र और आभूषण खरीदे और भोर होते होते पुनः हरमाड़ा पहुंच गए ।

सुबह, जब बात गांव भर में फैली कि लिछमा के धर्म भाई आए हैं और भात भी भरा जाएगा तो इसे मजाक समझ देवरानी जेठानी ने मुंह बनाया । कल तक तो कोई भाई न था । अब कौन कृष्ण भगवान भात भरने आ रहे हैं ।

खुशी से फूली न समाती लिछमा, पूरे परिवार के साथ गांव के बाहर धर्मोजी और गोपाल जी का स्वागत करने पहुँची । धर्मोजी और गोपाल जी दो कपड़ो के थानों से लदी बैलगाड़ियों के साथ गांव के बाहर खड़े थे ।

धर्मोजी ने बाई लिछमा को चुन्दड़ी ओढाई और ढोल नगाड़ों के साथ गांव में प्रवेश किया ।

पूरे गांव में लिछमा गुर्जरी और उसके दोनों चौधरी भाईयों की बातें होने लगी । इधर लिछमा की दोनों जेठानियाँ जल-भूनकर काली पड़ गई । दोनों ने आपस में मन्त्रणा की और निश्चय किया कि किसी भी तरह दोनों चौधरियों को लिछमा का माहिरा नहीं भरने देना है वरना उनका नाक कट जायेगा ।

जेठानियों ने अपने पतियों को पिरोया और उन्हीं की अंगुलियों पर नाचते दोनों जेठ और ससुर, गांव के पंचो के साथ चौधरियों के पास पहुँच गए ।

“ चौधरियों ! लिछमा का माहिरा लेकर तो आप आ गए । लेकिन हमारे गांव में माहिरा भरने के कुछ नियम है वो तो आपको मानने पड़ेंगे ।“ पंच ने लिछमा के जेठों ने जैसा सिखाया था बोलना शुरू किया

“ देखो पांचों ! हम बाई लिछमा का माहिरा भरने आये हैं तो माहिरा तो भरके जायेंगे ।“ गोपाल जी ने मुछ मरोड़ते हुए कहा “ अब आपके यहाँ जो भी नियम है बता दीजिए ।“

“ हमारे यहाँ जो भी माहिरा भरने आता है उसको ढोली, नाई, कमीणा को नेग में बेस देना पड़ता है ।“ पंच ने कहा

“ पंचो ! ढोली– नाई छोड़ो, आप तो पूरे गांव के ही घर बता दो कितने है ?” धर्मोजी ने कहा

पंच समझ गये की ये तो माहिरा भरे बिना नहीं जाने वाले ।

यह खबर जब वापस देवरानी, जेठानी के कानों पहुँची तो दोनों मिलकर अपने भाइयों के पास गई और बोली कि भले दो दोनों मिलकर माहिरा भर देना परंतु इन चौधरियों से पीछे नहीं रहना है ।



शाम के समय माहिरा भरने लगा ।

दोनों चौधरियों ने पूरे गाँव के घर घर में कपड़े पहनाये, लिछमा गुर्जरी को नोरंगी चुनरी ओढ़ाई और उपहारों से घर भर दिया ।

इधर लिछमा की देवरानी जेठानी के भाईयों ने मिलकर सौ चांदी की मोहरें माहिरा में भरी । चौधरियों ने बची हुई बिस हजार सोने की अशर्फियाँ थाली में भर दी । पूरे गाँव में दोनों चौधरियों की जय जयकार होने लगी । पूरे कुल कुटुम्ब के बीच लिछमा नौरंगी चूनरी ओढ़े खड़ी थी । भाव विह्वल । एक सूत्र की शक्ति, एक धागे की ताकत संसार देख रहा था । अज्ञात कुल, नाम, ग्राम की नारी, जिसे कल तक देखा तक न था, उसके हाथों रक्षा सूत्र बन्ध जाने के बाद, उसके सम्मान की रक्षा की खातिर चौधरी बादशाह तक को चुनौती दे बैठे । रक्षा सूत्र से बंधे भाईयों ने बहन के सम्मान की रक्षा की और भात में दोनों ऊँटों सहित सारी माया लुटा, हाथ जोड़, चौधरी दिल्ली को निकल पड़े ।


दो चार दिन बाद दिल्ली पहुंचे, दरबार में हाजरी लगाई । मालगुजारी जमा करवाने के वक़्त बादशाह के सम्मुख हाथ जोड़ खड़े हो गए । पूरा वृत्तांत कह सुनाया । मौत का भय तो था ही नहीं, मरना तो निश्चित मान के गए थे ।

लेकिन- "हिम्मत कीमत होय, बिन हिम्मत कीमत नहीं ।" "कर भला तो हो भला।"

बादशाह घटना सुन कर और चौधरियों की हिम्मत देख कर प्रभावित हो गया । उसने घटना की सत्यता जांचने का हुक्म दिया और सत्यता प्रमाणित होते ही दोनों चौधरियों को पुरस्कृत भी किया ।

दोनों चौधरी बादशाह के यहां से 1000 बीघा जमीन पुरस्कार में प्राप्त कर खुशी खुशी घर लौटे और हजार बीघा जमीन के साथ ही कमा लाए- हजारों वर्षों के लिए नाम ।

राजस्थान में आज तक बहनें अपने भाईयों से उन चौधरियों की तरह बनने को कहा करती है । वचन के पक्के, निडर, हिम्मती और दरियादिल । आज भी रक्षा बंधन के और भात के गीतों में ये पंक्तियां गाई जाती हैं-

" बीरा बणजे तू जायल रो जाट ।

बणजे खिंयाला रो चौधरी ।।“

ढोली व डूम भी गाँव गाँव इस गाथा का बखान करते हुए गाते है " खिंयाला रा चौधरी बडियासर बंका, न मानी राज की शंका ।"

आज भी खिंयाला के जाट इस परंपरा का निर्वाह करते है । “ यदि किसी स्त्री के पीहर में कोई माहिरा भरने वाला नहीं है और वह स्त्री खिंयाला जाकर माहिरा का न्यौता देती है, भले ही स्त्री किसी भी जाति की हो । खिंयाला के जाट सब शामिल होकर उस औरत के ससुराल जाकर माहिरा भरकर आते हैं ।