पृथ्वीराज चौहान की जीवनी व इतिहास

पृथ्वीराज चौहान की जीवनी व इतिहास


पृथ्वीराज चौहान

पृथ्वीराज चौहान तृतीय का जन्म 1 जून 1163 के दिन चौहान वंश में अजमेर के शासक सोमेश्वर चौहान और कर्पूरदेवी के घर हुआ था । पृथ्वीराज की शिक्षा दिक्षा अजमेर में ही सम्पन्न हुई । यहीं पर उन्होंने युद्धकला और शस्त्र विद्या की शिक्षा अपने गुरु श्री राम जी से प्राप्त की । पृथ्वीराज चौहान छह भाषाओँ में निपुण थे ( संस्कृत, प्राकृत, मागधी, पैशाची, शौरसेनी और अपभ्रंश भाषा ) । इसके अलावा उन्हें मीमांसा, वेदान्त, गणित, पुराण, इतिहास, सैन्य विज्ञान और चिकित्सा शास्त्र का भी ज्ञान था । पृथ्वीराज चौहान के राजकवि कवि चंदरबरदाई की काव्य रचना “ पृथ्वीराज रासो ” में उल्लेख किया गया है कि पृथ्वीराज चौहान शब्दभेदी बाण चलाने, अश्व व हाथी नियंत्रण विद्या में निपुण थे ।
पिता सोमेश्वर चौहान की मृत्यु के पश्चात सन 1178 में पृथ्वीराज चौहान का राजतिलक किया गया । पृथ्वीराज चौहान ने राजा बनने के साथ ही दिग्विजय अभियान भी चलाया, जिसमें उन्होंने सन 1178 में भादानक देशीय, सन 1182 में जेजाकभुक्ति शासक को और सन 1183 में चालुक्य वंशीय शासक को पराजित किया ।
चंदरबरदाई रचित पृथ्वीराज रासो में उल्लेख है कि, पृथ्वीराज जब ग्यारह वर्ष के थे, तब उनका प्रथम विवाह हुआ था । तत्पश्चात प्रतिवर्ष उनका एक विवाह होता गया, जब पृथ्वीराज बाईस वर्ष के हुए उनके 12 विवाह हो चुके थे । उसके पश्चात् पृथ्वीराज जब छत्तीस वर्षीय हुए, तह उनका अन्तिम विवाह संयोगिता के साथ हुआ ।

महाराणा प्रताप की जीवनी व इतिहास

चित्तौड़गढ़ के किले का इतिहास

कुम्भलगढ़ दुर्ग का इतिहास वीडियो में 

संयोगिता स्वयंवर


PRITHVIRAJ CHAUHAN

मोहम्मद गौरी को तराइन के प्रथम युद्ध में हारने के बाद पृथ्वीराज की अद्भुत वीरता की प्रशंसा चारों दिशाओं में गूंज रही थी, तब संयोगिता ने पृथ्वीराज की वीरता का और सौन्दर्य का वर्णन सुना । उसके बाद वह पृथ्वीराज को प्रेम करने लगी और दूसरी ओर संयोगिता के पिता जयचन्द ने संयोगिता का विवाह स्वयंवर के माध्यम से करने की घोषणा कर दी । जयचन्द ने अश्वमेधयज्ञ का आयोजन किया था और उस यज्ञ के बाद संयोगिता का स्वयंवर होना था । जयचन्द अश्वमेधयज्ञ करने के बाद भारत पर अपने प्रभुत्व की इच्छा रखता था । जिसका पृथ्वीराज ने विरोध किया था । अतः जयचन्द ने पृथ्वीराज को स्वयंवर में आमंत्रित नहीं किया और उसने द्वारपाल के स्थान पर पृथ्वीराज की प्रतिमा स्थापित कर दी ।
दूसरी तरफ जब संयोगिता को पता लगा कि, पृथ्वीराज चौहान स्वयंवर में अनुपस्थित रहेंगे, तब उसने पृथ्वीराज को बुलाने के लिये खत लिखकर दूत को भेजा । जब पृथ्वीराज चौहान को पता चला कि संयोगिता उससे प्रेम करती है तत्काल कन्नौज नगर की ओर प्रस्थान किया ।
कन्नौज पहुँचकर संयोगिता को सूचना दी और वहाँ से भागने का तरीका सुझाया । स्वयंवर काल के समय जब संयोगिता हाथ में वरमाला लिए उपस्थित राजाओं को देख रही थी, तभी उनकी नजर द्वार पर स्थित पृथ्वीराज की मूर्ति पर पड़ी । उसी समय संयोगिता मूर्ति के समीप जाती हैं और वरमाला पृथ्वीराज की मूर्ति को पहना देती हैं । उसी क्षण घोड़े पर सवार पृथ्वीराज राज महल में आते हैं और संयोगिता को ले कर इन्द्रपस्थ ( वर्तमान दिल्ली का भाग ) की ओर निकल पड़े ।

तराइन का प्रथम युद्ध

मुहम्मद गोरी ने सन 1186 में गजनवी वंश के शासक से लाहौर की गद्दी छीन ली और साम्राज्य विस्तार के लिए भारत में प्रवेश की तैयारी करने लगा । सन 1190 तक सम्पूर्ण पंजाब पर मुहम्मद गौरी का अधिकार हो चुका था । गौरी ने तत्कालीन राजधानी भटिंडा को बनाया एयर वहीं से अपना राजकाज चलता था । इधर गौरी का भारत में बढ़ता प्रभाव पृथ्वीराज को चिंतित कर रहा था । पृथ्वीराज चौहान भी पंजाब में चौहान साम्राज्य स्थापित करना चाहता था और गौरी के रहते यह असंभव था । साम्राज्य विस्तार की यह लालसा युद्ध में बदल गई । फलस्वरूप गौरी से निपटने के लिए पृथ्वीराज चौहान अपनी विशाल सेना के साथ पंजाब की ओर रवाना हो । रास्ते में पड़ने वाले किलों हांसी, सरस्वती और सरहिंद के किलों पर पृथ्वीराज चौहान ने अपना अधिकार कर लिया । इसी बीच उसे सूचना मिली कि पीछे से अनहीलवाडा में विद्रोहियों ने विद्रोह कर दिया है । पृथ्वीराज पंजाब से वापस अनहीलवाडा लौटे और विद्रोह को दबाया । इधर गौरी ने आक्रमण करके जीते हुए सरहिंद के किले को पुन: अपने कब्जे में ले लिया ।
विद्रोह को दबाकर जब यह देख कर पृथ्वीराज वापस पंजाब की ओर लौटने लगा, गौरी भी अपनी सेना के साथ आगे बढ़ा । दोनों सेनाओं के बीच सरहिंद के किले के पास तराइन नामक स्थान पर सन 1191 में यह युद्ध लड़ा गया । तराइन के इस पहले युद्ध में गौरी को करारी हार का सामना करना पड़ा । गौरी के सैनिक प्राण बचा कर भागने लगे, पृथ्वीराज की सेना ने 80 मील तक इन भागते तुर्कों का पीछा किया । मोहम्मद गौरी को कैद कर लिया गया परंतु मानवीय धर्म निभाते हुए पृथ्वीराज ने जान बख्श दी । इस विजय से सम्पूर्ण भारतवर्ष में पृथ्वीराज की धाक जम गयी और उनकी वीरता, धीरता और साहस की कहानी सुनाई जाने लगी ।
पृथ्वीराज चौहान कालीन सिक्के

तराइन का द्वितीय युद्ध

पृथ्वीराज चौहान द्वारा 1191 में राजकुमारी संयोगिता का स्वयंवर में से हरण कर कन्नौज से ले जाना राजा जयचंद को बुरी तरह कचोट रहा था और वह बदला लेने की फिराक में था । जब उसे पता चला की मुहम्मद गौरी भी पृथ्वीराज से अपनी पराजय का बदला लेना चाहता है तो उसने गौरी से गठबंधन के लिया । इस सबसे अंजान पृथ्वीराज को जब ये सूचना मिली की गौरी एक बार फिर युद्ध की तैयारियों में जुटा हुआ तो उसने सहयोगी राजपूत राजाओं से सैन्य सहायता का अनुरोध किया, परन्तु संयोगिता के हरण के कारण बहुत से राजपूत राजा पृथ्वीराज के विरोधी बन चुके थे । वे कन्नौज नरेश जयचंद के संकेत पर गौरी के पक्ष में युद्ध करने के लिए तैयार हो गए ।
सन 1192 में एक बार फिर पृथ्वीराज और गौरी की सेना तराइन के क्षेत्र में टकराई । हालांकि इस युद्ध में पृथ्वीराज की ओर से गौरी के मुकाबले दोगुने सैनिक थे । परंतु इस बार गौरी पिछली हार के सबक सीखकर आया था । पृथ्वीराज चौहान की सैन्य ताकत उसके हाथी थे, गौरी के घुड़सवारों ने आगे बढ़कर पृथ्वीराज की सेना के हाथियों को घेर लिया और उन पर बाण वर्षा शुरू कर दी । घायल हाथी घबरा कर पीछे हटे और अपनी ही सेना को रोंदना शुरू कर दिया । इस युद्ध में पृथ्वीराज की हार हुई । पृथ्वीराज चौहान और उसके राज कवि चंदबरदाई को बंदी बना लिया गया । पृथ्वीराज की हार से गौरी का दिल्ली, कन्नौज, अजमेर, पंजाब और सम्पूर्ण भारतवर्ष पर अधिकार हो गया । साथ ही जयचंद को कन्नौज से हाथ धोना पड़ा । इस युद्ध के पश्चात भारत में इस्लामी साम्राज्य स्थापित हो गया ।
PRITHVIRAJ CHAUHAN


पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु ( 11 मार्च 1192 )

पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के सम्बंध में इतिहासकारों के अलग अलग मत है, सबसे प्रचलित मत के अनुसार गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को कैद करने के पश्चात ' इस्लाम ' धर्म स्वीकारने को विवश किया । पृथ्वीराज चौहान और चंदरबरदाई को तरह तरह से शारीरिक यातना दी गई, परन्तु पृथ्वीराज ' इस्लाम ‘ धर्म के अस्वीकार पर दृढ़ संकल्प थे । गौरी ने पृथ्वीराज चौहान की आँखें गर्म सरियों से फुड़वा दी फिर भी इस्लाम कबूलवाने में नाकाम रहा ।  अतः गौरी ने कूटनीति पूर्वक पृथ्वीराज को ' इस्लाम ' स्वीकार कराने हेतु षड्यन्त्र रचा । गौरी ने अपने मंत्री प्रताप सिंह को षड्यंत्रकारी बताकर पृथ्वीराज के समीप जेल में भेजा । प्रताप सिंह का उद्देश्य था कि, किसी भी प्रकार से पृथ्वीराज को ' इस्लाम ' धर्म का स्वीकार करने के लिये तैयार । प्रताप सिंह पृथ्वीराज से मेल मिलाप बढ़ाता रहा । पृथ्वीराज ने प्रताप सिंह पर विश्वास करके उसे अपने मन की व्यथा बताई और कहा कि इस्लाम कबूलने से मरना बेहतर समझूँगा । पृथ्वीराज चौहान ने प्रताप सिंह को अपनी शब्दभेदी बाण की योजना बताई ।
" मैं गौरी का वध करना चाहता हूँ " पृथ्वीराज ने प्रताप सिंह को अपनी योजना समझाते हुए कहा । पृथ्वीराज ने आगे कहा कि “ मैं शब्दभेदी बाण चलाने में माहिर हूँ । तुम किसी तरह मेरी इस विद्या का प्रदर्शन देखने के लिए गौरी को तैयार करो ।“
प्रताप सिंह ने पृथ्वीराज की सहायता करने के स्थान पर गौरी को सारी योजना बता दी । पृथ्वीराज की योजना जब गौरी ने सुनी, तो उसके मन में क्रोध के साथ कौतूहल भी उत्पन्न हुआ । उसने कल्पना भी नहीं कि थी कि कोई भी अंधा व्यक्ति ध्वनि सुनकर लक्ष्य भेदने में सक्षम हो सकता है । गौरी ने शब्दभेदी बाण का प्रदर्शन देखना चाहा ।
पृथ्वीराज चौहान तो पहले ही तैयार था, चंदबरदाई के साथ अखाड़े में पहुंच गए इधर गौरी ने अपने स्थान पर हूबहू अपने जैसी मूर्ति तैयार कर रखवा दी । गौरी ने जब लक्ष्य भेदने का आदेश दिया ।
चंदरबरदाई ने लोहे की मूर्ति को गौरी समझते हुए कहा “ चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण ! ता ऊपर सुल्तान है मत चुके चौहान !!”
सचमुच नहीं चुका चौहान, पृथ्वीराज ने प्रत्यंचा खेंची और पूरी ताकत से बाण चला दिया । बाण सनसनाता हुआ गौरी रूपी मूर्ति से टकराया और मूर्ति को दो भागों में तोड़ दिया ।
देशद्रोही प्रताप सिंह के कारण पृथ्वीराज का अंतिम प्रयास भी विफल रहा । हसन निजामी के वर्णन अनुसार, उसके पश्चात क्रोधित गौरी ने पृथ्वीराज को मारने का आदेश दिया । उसके पश्चात एक सैनिक ने तलवार से पृथ्वीराज की हत्या कर दी । इस प्रकार अजमेर में पृथ्वीराज की जीवनलीला समाप्त हो गई ।

महाराणा प्रताप की जीवनी व इतिहास

महाराणा प्रताप की जीवनी व इतिहास
महाराणा प्रताप की जीवनी
जन्म
महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 के शुभ दिन महाराणा सांगा के पुत्र उदयसिंह एवं महारानी जयवंता बाई के यहाँ राजसमंद जिले में स्थित कुम्भलगढ़ दुर्ग में हुआ । हालांकि इतिहासकारों में जन्म स्थान को लेकर मतभेद है, इतिहासकार जेम्स टॉड के अनुसार महाराणा प्रताप सिंह का जन्म मेवाड़ के कुम्भलगढ़ दुर्ग में हुआ, जबकि इतिहासकार विजय नाहर के मतानुसार बालक प्रताप का जन्म अपने नाना सोनगरा अखैराज के राजमहलों में हुआ था । महाराणा प्रताप को बचपन में “ कीका “ नाम से बुलाया जाता था ।
28 फरवरी 1572 को पिता उदयसिंह की मृत्यु होने से पूर्व ही उन्होंने अपनी सबसे छोटी रानी धीरबाई ( राणी भटियाणी ) के पुत्र जगमाल सिंह को मेवाड़ का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया, जबकि जेष्ठ पुत्र होने के कारण प्रताप सिंह स्वाभाविक रूप से उत्तराधिकारी था । जगमाल सिंह विलासी प्रवर्ति का अयोग्य राजकुमार था इसलिए राज्य के अधिकतर सामंत जगमाल सिंह के बजाय प्रताप सिंह को महाराणा की गद्दी के लिए योग्य उम्मीदवार मानते थे ।
इधर जगमाल सिंह के हाथ में सत्ता आते ही उसके भोग विलास और जनता पर अत्याचार बढ़ने लगे । प्रताप सिंह ने भी छोटे भाई को समझने की कोशिश की परंतु सत्ता के अंधे जगमाल सिंह ने इसे अनदेखा कर दिया । जब जगमाल सिंह की अयोग्यता और अत्याचार हद से बढ़ने लगे तब विवश होकर मेवाड़ के समस्त सरदार एकत्र हुए और प्रताप सिंह को राजगद्दी पर आसीन करवाया । प्रताप सिंह का प्रथम राजतिलक 1 मार्च 1573 के दिन उदयपुर के नजदीक गोगुन्दा नामक गाँव में हुआ, और इसी दिन से प्रताप सिंह, महाराणा प्रताप नाम से जाना जाने लगा । महाराणा प्रताप का शारीरिक सौष्ठव ही उनके दुश्मनों के दिलों में भय पैदा करने में सक्षम था, महाराणा प्रताप साढ़े सात फिट लंबे थे और 110 किलो वजनी थे, युद्ध में जाते समय उनके साथ 80 किलोग्राम का भाला, 208 किलोग्राम की दो तलवारें और 72 किलोग्राम का लोहे का कवच होता था ।
महाराणा प्रताप का रीति रिवाजों के अनुसार द्वितीय राजतिलक कुम्भलगढ़ दुर्ग में किया गया । इधर प्रताप सिंह के राजगद्दी हथियाने के विरोध स्वरूप जगमाल सिंह ने अकबर से मित्रता गांठ ली ।
महाराणा प्रताप के राज्य की राजधानी उदयपुर थी । उन्होंने सन 1568 से 1597 तक शासन किया । उदयपुर पर विदेशी आक्रमणकारियों के संकट को देखते हुए और सामन्तों की सलाह मानकर महाराणा प्रताप ने उदयपुर छोड़कर कुम्भलगढ़ और गोगुंदा के पहाड़ी इलाके को अपना केन्द्र बनाया ।
 महाराणा प्रताप ने अपने जीवनकाल में कुल 16 शादियाँ की थी, जिनसे उनके 17 पुत्र और 5 पुत्रियाँ थी ।
1568 में मुगल सेना द्वारा चित्तौड़गढ़ किले की विकट घेराबंदी के कारण मेवाड़ की उपजाऊ पूर्वी बेल्ट अकबर के नियंत्रण में आ गई । हालाँकि जंगल और पहाड़ी इलाका अभी भी महाराणा के कब्जे में थे । मेवाड़ पर अकबर की नजर इसलिए भी थी क्योंकि वह मेवाड़ से होते हुए के गुजरात के लिए एक स्थिर तलाश कर रहा था ।
महाराणा प्रताप के शासनकाल के समय तक लगभग पूरे उत्तर भारत में मुगल बादशाह अकबर का साम्राज्य, जिसमें अकबर लगातार बढ़ोतरी कर रहा था । मेवाड़ साम्राज्य अकबर के साम्राज्य विस्तार की राह में रोड़ा बना हुआ था । इसके लिए अकबर ने महाराणा प्रताप को अधीनता स्वीकार करने के लिए चार बार प्रताव भेजे ( सितंबर 1572 में जलाल खाँ, मार्च 1573 में मानसिंह, सितंबर 1573 में भगवानदास, दिसंबर 1573 में टोडरमल ) । परंतु हर बार निराश हाथ लगी, महाराणा प्रताप ने मुगल बादशाह की अधीनता स्वीकार करने से लड़ते हुए मरना श्रेष्ठ माना । अकबर ने महाराण को व्यक्तिगत रूप से प्रस्तुत होने का संदेशा भिजवाया परंतु महाराणा ने इनकार कर दिया, तब युद्ध से ही मेवाड जीतना अकबर के लिए जरूरी हो गया था । जिसके परिणाम स्वरूप 18 जून 1576 को हल्दीघाटी का ऐतिहासिक युद्ध हुआ ।

हल्दीघाटी का युद्ध ( 18 जून 1576 )
हल्दीघाटी का युद्ध
18 जून 1576 को मुगल बादशाह के साम्राज्य विस्तार की नीति के फलस्वरूप हल्दीघाटी नामक दर्रे के नजदीक मेवाड़ की सेना ( जिसका सेनापति महाराणा प्रताप था ) और मुगलिया साम्राज्य की सेना ( मानसिंह और आसफ खान ) के बीच भीषण युद्ध हुआ । मेवाड़ की ओर से भील सेना के सरदार राणा पूंजा भील थे, जिन्होंने इस युद्ध में अद्भुत पराक्रम दिखाया । इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ने वाले एकमात्र मुस्लिम सरदार हकीम खाँ सूरी थे ।
हल्दीघाटी युद्ध में मेवाड़ की सेना में 20 हजार और मुगल सेना में 50 हजार सैनिक थे, फिर भी मेवाड़ के योद्धाओं ने मुगलों को नाकों चने चबवाये । महाराणा प्रताप ने इस युद्ध में अपनी युद्धकला और वीरता का परचम लहराया । जिस ओर उनका घोड़ा चेतक मुँह घुमा लेता उस तरफ दुश्मनों की लाशों के ढेर लग जाते । दुश्मन सेना के लिए महाराणा और चेतक यमराज और उसके भैसे की तरह दिखाई दे रहा था । इस पूरे युद्ध में मेवाड़ की सेना मुगलों पर भारी पड़ रही थी और उनकी रणनीति सफल हो रही थी । महाराणा ने हाथी पर सवार मुगलों के सेनापति मान सिंह पर चेतक से हमला किया । मानसिंह ने हाथी के ऊपर बने हौदे में छुपकर जान बचाई । इस हमले में चेतक को भी गहरी चोटें आई, चेतक युद्ध में महाराणा का अहम साथी था । यह देखकर मुगल सेना युद्ध छोड़कर केवल महाराणा प्रताप को पकड़ने पर आमाद दिखने लगी, तब बींदा के झाला मान ने महाराणा प्रताप का मुकुट स्वयं धारण कर अपने प्राणों का बलिदान दिया और महाराणा प्रताप को युद्धक्षेत्र से निकलकर उनके जीवन की रक्षा की । युद्धक्षेत्र से निकलते समय मुगल सेना ने महाराणा का पीछा किया और एक विशाल नाले को पार करने के पश्चात स्वामिभक्त चेतक की मृत्यु हो गई । इतिहासकारों के अनुसार यह युद्ध अनिर्णित रहा । अकबर ने अपनी विशाल सेना महाराणा प्रताप को जिंदा या मुर्दा लाने के उद्देश्य से भेजी थी, जिसमें वो नाकाम रहा । वहीं महाराणा प्रताप को भी मेवाड़, चित्तौड़, गोगुन्दा, कुम्भलगढ़, उदयपुर आदि इलाके छोड़ने पड़े ।
इस युद्ध का आँखों देखा वर्णन अब्दुल कादिर बदायूनी ने किया था ।
इस युद्ध के पश्चात महाराणा ने जंगलों में शरण ली और धीरे धीरे अपनी शक्ति बढ़ाने लगे । इस मुसीबत के वक्त पर उनके मित्र और विश्वासपात्र सलाहकार भामाशाह द्वारा महाराणा को अपना सम्पूर्ण धन अर्पित कर दिया गया ।
वह धन्य देश की माटी है, जिसमें भामा सा लाल पला। 
उस दानवीर की यश गाथा को, मेट सका क्या काल भला॥
इस सहयोग से महाराणा में नये उत्साह का संचार हुआ । अगले तीन वर्षों में महाराणा ने पुन: सैन्य शक्ति संगठित कर मुगलों से एक एक कर अधिकांश इलाके छीन लिये । 
हल्दीघाटी का नाला फांदता चेतक

 दिवेर का युद्ध ( मेवाड़ के मैराथन )

महाराणा प्रताप ने धीरे धीरे अपनी शक्ति अर्जित की और अक्टूबर 1582 में दिवेर और छापली के दर्रो के मध्य हुए दिवेर का युद्ध में मुगल सेना को वापस लौटने पर मजबूर कर दिया । यह इतिहास का एक महत्वपूर्ण युद्ध माना जाता है, क्योंकि इस युद्ध में महाराणा प्रताप को अपने खोये हुए राज्यों की पुनः प्राप्ती हुई । इस युद्ध के पश्चात महाराणा प्रताप व मुगल सल्तनत के बीच एक लम्बा संघर्ष चला, इसलिए कर्नल जेम्स टॉड ने इस युद्ध को " मेवाड़ का मैराथन " कहा था |
दिवेर का युद्ध

दिवेर के युद्ध के पश्चात महाराणा प्रताप एक के बाद एक गढ़ जीतते जा रहे थे, उधर अकबर भी अपने साम्राज्य में हो रहे विद्रोहों को दबाने में उलझ गया परिणामस्वरूप मेवाड़ में मुगल साम्राज्य का शिकंजा छूटने लगा । इसका लाभ उठाकर महाराणा प्रताप ने 1585 तक लगभग सम्पूर्ण मेवाड़ पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया । इस लंबे संघर्ष के पश्चात भी मेवाड़ अकबर के हाथों से फिसल गया । महाराणा प्रताप सिंह के डर से ही अकबर अपनी राजधानी लाहौर लेकर गया और तब तक वापस नहीं लौटा जब तक की महाराणा के स्वर्ग सिधारने का समाचार नहीं मिला ।
उसके बाद महाराणा प्रताप अपने राज्य की उन्नति में जुट गए, परंतु दुर्भाग्य से 19 जनवरी 1597 को अपनी नई राजधानी चावंड में उनकी मृत्यु हो गई ।


उपसंहार

महाराणा प्रताप के स्वर्गवास के समय अकबर लाहौर में था, जब उसे सूचना मिली कि महाराणा प्रताप की मृत्यु हो गई है । अकबर की उस समय की मनोदशा पर अकबर के दरबारी दुरसा आढ़ा ने राजस्थानी छंद में जो विवरण लिखा वो कुछ इस प्रकार है -:
अस लेगो अणदाग पाग लेगो अणनामी !
गो आडा गवड़ाय जीको बहतो घुरवामी !!
नवरोजे न गयो न गो आसतां नवल्ली !
न गो झरोखा हेठ जेठ दुनियाण दहल्ली !!
गहलोत राणा जीती गयो दसण मूंद रसणा डसी !
निसा मूक भरिया नैण तो मृत शाह प्रतापसी !!
अर्थात -:  हे गेहलोत राणा प्रताप सिंह तेरी मृत्यु पर शाह यानी सम्राट ने दांतों के बीच जीभ अपनी दबाई और निःश्वास के साथ आंसू टपकाए । क्योंकि तूने कभी भी अपने घोड़ों पर मुगलिया दाग नहीं लगने दिया । तूने अपनी पगड़ी को किसी के आगे झुकाया नहीं, हालांकि तू अपना आडा यानि यश या राज्य तो गंवा गया लेकिन फिर भी तू अपने राज्य के धुरे को बांए कंधे से ही चलाता रहा । तेरी रानियां कभी नवरोजों में नहीं गईं और ना ही तू खुद आसतों यानि बादशाही डेरों में गया । तू कभी शाही झरोखे के नीचे नहीं खड़ा रहा और तेरा रौब दुनिया पर निरंतर बना रहा । इसलिए मैं कहता हूँ कि तू सब तरह से जीत गया और बादशाह हार गया ।
महाराणा प्रताप को उनके स्वाभिमान, अदम्य साहस, जिजीविषा और कभी हार न मानने वाले जज्बे की वजह से भारतीय इतिहास में सम्मानपूर्वक देखा और पढ़ा जाता है । आज भी महाराणा प्रताप का जीवन चरित्र समस्त भारतीयों के लिए गर्व का विषय है ।
अपनी मातृभूमि की आजादी के लिए अपना जीवन बलिदान कर देने वाले ऐसे वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप और उनके उनके स्वामिभक्त चेतक को शत-शत नमन । 🙏🙏🙏🙏
महाराणा प्रताप