तेजाजी निर्वाण स्थली सुरसुरा

 वीर तेजाजी निर्वाण स्थली सुरसुरा

तेजाजी धाम सुरसुरा


वीर तेजाजी बलिदान स्थल सुरसुरा, अजमेर जिले की किशनगढ़ तहसील में, किशनगढ़ - हनुमानगढ़ मेगा - हाईवे पर किशनगढ़ शहर से उत्तर दिशा में 16 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । वहीं अजमेर से 40 किलोमीटर उत्तर-पूर्व दिशा में स्थित है ।

सुरसुरा गांव का इतिहास


तेजाजी के समय में यहाँ विशाल जंगल था, जिसके उत्तर दिशा में 7-8 किलोमीटर की दूरी पर तेजाजी की ननिहाल त्यौद गांव है जबकि उत्तर-पश्चिम दिशा में 25-30 किलोमीटर की दूरी पर तेजाजी की सुसराल पनेर स्थित है । इसी जंगल में तालाब की पाल पर खेजड़ी वृक्ष के नीचे नाग देवता की बाम्बी है, जहां माता रामकुंवरी ( तेजाजी की माता ) नागदेव की पूजा करती थी ।


तेजाजी निर्वाण स्थल धाम सुरसुरा समतल भूमि में बसा है, इसके पश्चिम में जालया मेडिया नामक अरावली पर्वतमाला की पहाड़ी स्थित है, जबकि उत्तर-पश्चिम की तरफ अरावली पर्वत श्रेणी की काबरीया पहाड़ी स्थित है, काबरीया पहाड़ी के पूर्व में, हाइवे से सटी लाछा गुर्जरी द्वारा बड़े-बड़े चौकोर पत्थरों से निर्मित अत्यंत सुंदर प्राचीन बावड़ी बनी हुई है, जिसे लाछां बावड़ी के नाम से जाना जाता है । यहां दो सुंदर और प्राचीन छतरियाँ हैं, जहां आजकल बर्फानी बाबा नमक फक्कड़ साधुबाबा रहता है ।


सुरसुरा के पूर्व में झुमली टेकरी के पास काफी लंबा चौड़ा गोचर जंगल फैला हुआ है । तेजाजी के काल में यहाँ घना जंगल । सुरसुरा के पूर्व तथा दक्षिण में दो विशाल तालाब बने हुए हैं । पश्चिम का तालाब नष्ट प्रायः हो चुका है, उसी तालाब की पाल पर स्थित खेजड़ी के नीचे बासक नाग की बाम्बी थी, वहीं पर आज तेजाजी का विशाल मंदिर बना हुआ है और बासक नाग की बाम्बी आज भी वहीं बनी हुई है और समय समय पर बासक नाग दर्शन भी देते हैं । वर्तमान में सुरसुरा के तीन तरफ जो जंगल है, वह उसी जंगल के अवशेष हैं, जहां कभी लाछां गुर्जरी की गायें चरती थी । वर्तमान सुरसुरा गांव उसी नाग की बाम्बी के चारो तरफ बसा हुआ है ।


लोक कथाओं के अनुसार तेजाजी के देवगति पाने के पश्चात, इसी सुनसान जंगल से एक बार सुर्रा नाम का खाती अपने बैल गाड़ी जोतकर गुजर रहा था । रात्रि हो जाने पर तेजाजी के वीरगति स्थल के पास रात्रि विश्राम के लिए रुका । रात्रि में चोरों द्वारा उसके बैल चुरा लिए गए । लेकिन तेजाजी की कृपा से चोर बैलों को लेकर भागने में सफल नहीं हो सके । सभी चोर रात भर तेजाजी के बलिदान स्थल व काबरिया पहाड़ी के बीच भूलभुलैया के भ्रम में पड़ भटकते रहे । सवेरा होने पर चोर बैलों को लेकर लौटे और सुर्रा खाती को सौपकर क्षमा मांगते हुए चले गए ।

इस घटना के बाद सुर्रा का आस्था और विश्वास तेजाजी के प्रति इतना बढ़ गया कि वह उसी जंगल में बस गया । उसी सुर्रा खाती के नाम पर गाँव का नाम सुरसुरा पड़ा । आम बोलचाल की भाषा में इस गाँव को अब भी सुर्रा ही बोलते हैं ।


वीर तेजाजी मंदिर सुरसुरा

तेजाजी मंदिर सुरसुरा


तेजाजी की वीरगति धाम, सुरसुरा में तेजाजी का बहुत ही सुंदर और भव्य मंदिर बना हुआ है । यह मंदिर उसी स्थान पर है जहां बलिदान के बाद आसू देवासी की अगुआई में पनेर और त्योद के कुछ लोगों के साथ ग्वालों ने तेजाजी का दाह संस्कार किया था । इसी स्थान पर तेजाजी की पत्नी पेमल सती हो गई थी । तेजाजी मंदिर के सामने बहुत बड़ी धर्मशाला बनी हुई है, जिसमें तेजाजी की जीवनी चित्रित की हुई है ।

तेजाजी मंदिर का मूल स्थान जमीन की सतह से 3 - 4 फुट नीचें है । यह जमीन की सतह से नीचा इसलिए है, क्योंकि तेजाजी के बलिदान के समय यहाँ एक छोटा सा तालाब था । उसी तालाब की पाल पर खेजड़ी वृक्ष के नीचे बासक नाग की बाम्बी थी, जो आज भी मौजूद है । तालाब का अंदरूनी भाग तेजाजी का बलिदान स्थल एवं दाह संस्कार स्थल होने से तालाब की पाल को साथ लेते हुये तालाब में ही मंदिर बना दिया गया था ।


तेजाजी मंदिर के गर्भगृह में स्वयंभू प्राचीन प्रतिमा से सटकर नागराज की बाम्बी विद्यमान है । लोगों की दृढ़ आस्था विश्वास मान्यता के अनुसार गेहूं रंगाभ श्वेत नाग के रूप में तेजाजी दर्शन देते हैं तो उनको इसी बाम्बी में प्रवेश कराया जाता है ।


सुरसुरा के निवासी


सुरसुरा में मुख्यतः जाट, माली, गुर्जर, ब्राह्मण, वैष्णव, मेघवाल, रैदास, दर्जी, सुनार, कुम्हार, हरिजन, राजपूत, दमामी, मीणा, खटीक, नाई, आचार्य, बागरिया, मुसलमान, नाई, टेली, पिनारा, बिंजारा आदि जातियाँ निवास करती हैं, जिनमें जाट जाति की बहुलता है । 


तेजाजी मेला सुरसुरा

हर साल भादवा सुदी दशमी जिसे तेजा दशमी भी कहा जाता है, इस दिन वीर तेजाजी का विशाल मेला भरता है, जो 3 दिन चलता है । श्रावण और भादवा माह में दूर-दूर से तेजाजी की ध्वज यात्राएँ आती है, साल भर लाखों यात्री तेजाजी धाम दर्शनों के लिए आते हैं ।

वीर तेजाजी जाट



तेजाजी धाम सुरसुरा

तेजाजी धाम सुरसुरा आने के लिए आप किशनगढ़ रेलवे स्टेशन से बस या टैक्सी से सुरसुरा पहुंच सकते हैं । किशनगढ़ एयरपोर्ट बनने से आप हवाई जहाज से भी आ सकते हैं । किशनगढ़ से तेजाजी धाम की दूरी मात्र 16 किलोमीटर है ।


आशा करता हूँ कि मेरे द्वारा दी गई जानकारी आपको पसंद आई होगी, यदि हाँ तो पोस्ट को शेयर अवश्य करें ।


लिछमा बाई रो मायरो

 राजस्थानी ऐतिहासिक कथा लिछमा बाई रो मायरो




उस समय की बात है जब भारतवर्ष में मुगल बादशाह का राज था । नागौर में जायल और खिंयाला दो पड़ौसी रियासत हुआ करती थी । जिनमें दो चौधरी ( जाट ) नम्बरदार हुआ करते थे । नाम था गोपाल जी और धर्मो जी । गोपाल जी जायल गांव के बासट गौत्र के जाट और धर्मो जी खिंयाला के बिडियासर जाट । दोनों चौधरी उस समय दिल्ली के बादशाहों के लिए लगान संग्रहण करने का कार्य किया करते थे ।


वे साल में एक बार किसानों से निर्धारित रकम वसूला करते और बादशाह तक पहुंचा दिया करते और बदले में अपनी तनख्वाह ले लिया करते थे ।


हमेशा की तरह इस बार भी दोनों चौधरीयों ने लगान इकट्ठा किया और ऊंटों पर रकम लाद कर बादशाह को सौंप देने दिल्ली के लिए रवाना हुए । रास्ता लम्बा था और चोर-लुटेरों के हमलों से बचने के लिए दोनों ने बंजारों का रूप धारण कर लिया ।


शाम ढलने तक दोनों जयपुर के नजदीक हरमाड़ा नाम के एक गांव तक पहुंचे । दिन भर चलते चलते दोनों थक चुके थे, इसलिए हरमाड़ा गांव के पास चौधरियों ने डेरा जमाया । गोपाल जी तालाब में ऊंटों को पानी पिलाने गए और धर्मोजी पीतल की गगरी लेकर कुवे पर पानी लेने गये ।



दैवयोग से उसी दौरान गांव की गुर्जर जाति की एक सामान्य सी गृहिणी, लिछमा गुर्जरी । अपनी जेठानियों की पुत्रियों के साथ अपनी पुत्री के विवाह के प्रबंध में लगी थी । लेकिन विवाह के उत्साह से बिल्कुल परे वह आकुल, व्याकुल, दुविधाग्रस्त थी । कारण ये था कि पीहर में उसका कोई भाई नहीं था, और माता पिता भी इतने बूढ़े हो चुके थे की जो उसकी पुत्री के विवाह में भात भरने के लिए नहीं आ सकते थे ।


भात या मायरा राजस्थान की प्रथा है जिसमें विवाह के सुअवसर पर मातुल पक्ष के लोग सामर्थ्यानुसार वस्त्र, आभूषण आदि कुछ उपहार ले कर प्रस्तुत होते हैं ।


लेकिन उपहार और सहायता के नाम पर चली ये परम्परा धीरे धीरे प्रतिष्ठा का प्रश्न बन महिलाओं के लिए गले की फांस बन गयी ।

अब हालात ये है कि जब तक मायके से मायरा आ न जाए, तब तक ना तो नारी चिंता मुक्त हो पाती थी और ना ही कुल कुटुम्ब उसे चैन की सांस लेने देते थे । भात में कितने पैसे आए ? कौन कौन से आभूषण आए ? किस भाँति के वस्त्र आए इत्यादि प्रश्नों के उत्तर आने वाले कई दिन-महीनों-सालों तक ससुराल में नारी की प्रतिष्ठा और महत्त्व को निर्धारित करते थे । भात कम आने का अर्थ ही जहाँ जीवन भर सास-ननद, देवरानी-जेठानी आदि के ताने हुआ करता हो, वहाँ भात नहीं आने पर क्या हाल हो सकता है ? कल्पना सहज ही की जा सकती है ।


अगले दिन विवाह का कार्यक्रम निश्चित था । जेठानीयों की पुत्रियों का भी विवाह था । उनका भी भात कल ही आना था, वे दोनों अपने अपने पिता-भाई और भात के स्वागत का प्रबंध कर रही थीं ।


ऐसे में लिछमा स्वयं को दुर्भाग्यशाली न समझे तो क्या करे । मां के जाए बीर बिना कुण भात भरण ने आवे ! आंसू आंखों की कोर में तैर रहे थे, छलके नहीं । क्योंकि अभी तक इस प्रसंग पर चर्चा हुई नहीं थी । लिछमा को लगा- मेरे मायके की स्थिति सर्वज्ञात है, हो सकता है इसी से मुझे मायरे से मुक्ति दे दी गई हो ।


लेकिन ऐसा थोड़े ही हुआ करता है । पंजाब में कहावत है- सांप में एक 'स', सास में दो 'स', सास ये मौका ऐसे ही थोड़े छोड़ देने वाली थी । सास समुदाय की प्राचीन एवं प्रचलित परम्परा का पूर्ण रूपेण निर्वहन । खुल कर तिक्त वचन सुनाए गए । भात बिना कोई विवाह हुआ है कभी जो तेरी बेटी का हो जाएगा, फूटे भाग हमारे जो तेरे जैसी बहु मिली, मर क्यों नहीं जाती कहीं जाकर !


अपमान के नमक से अंतर के घाव चिरमिरा उठे । लिछमा रोने लगी । मन में विचार आया-तिरस्कार सह कर जीने से तो अच्छा प्राण ही दे दिए जाएं । कौनसा सार बचा है जीवन में ।


पनघट से पानी लाने का बहाना बनाया, घड़ा उठाया और रोते रोते चल पड़ी । लिछमा पनघट पर बैठ के खुल के रोई, सोचा- मरना तो है ही, जी तो हल्का करूँ । राम जाने विधाता ने कैसे भाग लिखे हैं, जो कोई मेरा भी भाई होता तो आज मरने की नौबत थोड़े ही आती ।


और भाग्यवश, दैव योग से ही, लिछमा का रुदन पानी भरने आये धर्मो चौधरी के कानों में पड़ा । चौधरी रुदन सुन चौंका । सूर्य पश्चिम में ढल चुका है और रात्रि का अँधेरा गहराने लगा और ऐसे समय में पनघट के नजदीक स्त्री कण्ठ से रुदन की ध्वनि ? यह कौन दुखियारी है ?

धर्मोजी उठे और रुदन की आवाज सुनते हुए लिछमा तक पहुंचे और बोले “ पणिहारी ! रोती क्यों है ? कौन विपत्ति आन पड़ी ? मुझे बता, शायद मैं कुछ सहायता कर सकूँ ?


लिछमा ने सोचा इसे सुना कर ही क्यों न मरूँ, मरना तो है ही, जी तो हल्का हो । लिछमा ने चौधरी को सब कुछ कह सुनाया । चौधरी साहब व्यथा सुन व्याकुल हो गए और बोले- “ पणिहारी, कौन कहता है तेरा कोई भाई नहीं है, मुझे राखी बांध, मैं तेरा भाई हूँ ।“


लिछमा हिचकिचाई, चौधरी फिर बोला - लिछमा, चीर फाड़ के बांध कलाई पर, मैं तेरा धर्म का भाई हूँ । अब से तेरा सम्मान मेरा सम्मान । तेरी लाज मेरी लाज । तेरी व्यथा - मेरी व्यथा । भात की चिंता मत कर । भात मैं भरूँगा ।


चौधरी की जबान थी, लिछमा आश्वस्त हो गई ।



लिछमा के ओढ़नी के टुकड़े ने चौधरी की कलाई पर बन्ध कर भाई बहन के रिश्ते की नींव पड़ने की साख भरी । गूजरी दुःख की घड़ी में भाई का सा स्नेह पा बड़ी प्रसन्न हुई और घड़ा उठा घर की ओर चली ।

घर पहुंचने पर जब सास-ननद, जेठानी-देवरानी ने विष बुझे वचन शरों का वर्षण किया तब लिछमा ने आप बीती बताई और बोला कि सुबह मेरा भी धर्मभाई भात लेकर आने वाला है ।

लिछमा की बातें सुन सभी ने मजाक उड़ाया और बोला कि वो तो बंजारे है, उन्होंने तुम्हें बेवकूफ बनाया है, और सुबह तक यहाँ से चले भी जायेंगे । ऐसे कोई राह चलता किसी का माहिरा भरता है भला ?

लिछमा के पति ने भी उसे समझाया कि ऐसा नहीं होता और यदि उन बंजारों के पास ही माहिरा भरने के रुपये होते तो घरबार छोड़कर क्यों घूम रहे होते ? देखना सुबह तक वो अपनी राह पर आगे निकल जायेंगे ।


लेकिन लिछमा तो मन ही मन मुदित थी, प्रमुदित थी सो सब झेलती रही ।


उधर, धर्मोजी ने गोपालजी को सारा वृत्तांत सुनाया और कहा - वचन दे आया हूँ, सुबह भात भरना है । दूसरा चौधरी जबान की कीमत समझता था, भात भरने का कह दिया, मतलब भात तो भरना ही है ।


लेकिन, पैसे कहाँ से आएं ? ऊंटों पर जो रकम लदी है, वो तो मालगुजारी के पैसे हैं । बादशाह की अमानत। भारतवर्ष पर एकछत्र राज करने वाले बादशाह की अमानत और इस अमानत में खयानत करना यानी अपनी मौत को आमन्त्रित करना । रकम भी कोई छोटी मोटी नहीं थी, पूरी 22000 सोने अशर्फियाँ । ये खर्च करने पर बादशाह ज़िंदा तो नहीं छोड़ेगा । ये तो तय है । क्या किया जाए ?

लेकिन, वचन देकर पलट जायें, इससे अच्छा तो यही कि गर्दन कट जाये । हम वीर तेजाजी के वंशज है, “ प्राण जाय पर वचन न जाई “ भात तो भरेंगे । बादशाह जो करेगा, देखा जाएगा ।


चौधरियों ने रातों रात खूंटों से बंधे ऊंटों को खोला, सवार हुए और घण्टे भर में जा पहुंचे जयपुर । कुछ पुरानी पहचान और कुछ अशर्फियों की खनक ने आधी रात में दो चार दुकानें खुलवाई और मायरे के लिए उपहार, वस्त्र और आभूषण खरीदे और भोर होते होते पुनः हरमाड़ा पहुंच गए ।

सुबह, जब बात गांव भर में फैली कि लिछमा के धर्म भाई आए हैं और भात भी भरा जाएगा तो इसे मजाक समझ देवरानी जेठानी ने मुंह बनाया । कल तक तो कोई भाई न था । अब कौन कृष्ण भगवान भात भरने आ रहे हैं ।

खुशी से फूली न समाती लिछमा, पूरे परिवार के साथ गांव के बाहर धर्मोजी और गोपाल जी का स्वागत करने पहुँची । धर्मोजी और गोपाल जी दो कपड़ो के थानों से लदी बैलगाड़ियों के साथ गांव के बाहर खड़े थे ।

धर्मोजी ने बाई लिछमा को चुन्दड़ी ओढाई और ढोल नगाड़ों के साथ गांव में प्रवेश किया ।

पूरे गांव में लिछमा गुर्जरी और उसके दोनों चौधरी भाईयों की बातें होने लगी । इधर लिछमा की दोनों जेठानियाँ जल-भूनकर काली पड़ गई । दोनों ने आपस में मन्त्रणा की और निश्चय किया कि किसी भी तरह दोनों चौधरियों को लिछमा का माहिरा नहीं भरने देना है वरना उनका नाक कट जायेगा ।

जेठानियों ने अपने पतियों को पिरोया और उन्हीं की अंगुलियों पर नाचते दोनों जेठ और ससुर, गांव के पंचो के साथ चौधरियों के पास पहुँच गए ।

“ चौधरियों ! लिछमा का माहिरा लेकर तो आप आ गए । लेकिन हमारे गांव में माहिरा भरने के कुछ नियम है वो तो आपको मानने पड़ेंगे ।“ पंच ने लिछमा के जेठों ने जैसा सिखाया था बोलना शुरू किया

“ देखो पांचों ! हम बाई लिछमा का माहिरा भरने आये हैं तो माहिरा तो भरके जायेंगे ।“ गोपाल जी ने मुछ मरोड़ते हुए कहा “ अब आपके यहाँ जो भी नियम है बता दीजिए ।“

“ हमारे यहाँ जो भी माहिरा भरने आता है उसको ढोली, नाई, कमीणा को नेग में बेस देना पड़ता है ।“ पंच ने कहा

“ पंचो ! ढोली– नाई छोड़ो, आप तो पूरे गांव के ही घर बता दो कितने है ?” धर्मोजी ने कहा

पंच समझ गये की ये तो माहिरा भरे बिना नहीं जाने वाले ।

यह खबर जब वापस देवरानी, जेठानी के कानों पहुँची तो दोनों मिलकर अपने भाइयों के पास गई और बोली कि भले दो दोनों मिलकर माहिरा भर देना परंतु इन चौधरियों से पीछे नहीं रहना है ।



शाम के समय माहिरा भरने लगा ।

दोनों चौधरियों ने पूरे गाँव के घर घर में कपड़े पहनाये, लिछमा गुर्जरी को नोरंगी चुनरी ओढ़ाई और उपहारों से घर भर दिया ।

इधर लिछमा की देवरानी जेठानी के भाईयों ने मिलकर सौ चांदी की मोहरें माहिरा में भरी । चौधरियों ने बची हुई बिस हजार सोने की अशर्फियाँ थाली में भर दी । पूरे गाँव में दोनों चौधरियों की जय जयकार होने लगी । पूरे कुल कुटुम्ब के बीच लिछमा नौरंगी चूनरी ओढ़े खड़ी थी । भाव विह्वल । एक सूत्र की शक्ति, एक धागे की ताकत संसार देख रहा था । अज्ञात कुल, नाम, ग्राम की नारी, जिसे कल तक देखा तक न था, उसके हाथों रक्षा सूत्र बन्ध जाने के बाद, उसके सम्मान की रक्षा की खातिर चौधरी बादशाह तक को चुनौती दे बैठे । रक्षा सूत्र से बंधे भाईयों ने बहन के सम्मान की रक्षा की और भात में दोनों ऊँटों सहित सारी माया लुटा, हाथ जोड़, चौधरी दिल्ली को निकल पड़े ।


दो चार दिन बाद दिल्ली पहुंचे, दरबार में हाजरी लगाई । मालगुजारी जमा करवाने के वक़्त बादशाह के सम्मुख हाथ जोड़ खड़े हो गए । पूरा वृत्तांत कह सुनाया । मौत का भय तो था ही नहीं, मरना तो निश्चित मान के गए थे ।

लेकिन- "हिम्मत कीमत होय, बिन हिम्मत कीमत नहीं ।" "कर भला तो हो भला।"

बादशाह घटना सुन कर और चौधरियों की हिम्मत देख कर प्रभावित हो गया । उसने घटना की सत्यता जांचने का हुक्म दिया और सत्यता प्रमाणित होते ही दोनों चौधरियों को पुरस्कृत भी किया ।

दोनों चौधरी बादशाह के यहां से 1000 बीघा जमीन पुरस्कार में प्राप्त कर खुशी खुशी घर लौटे और हजार बीघा जमीन के साथ ही कमा लाए- हजारों वर्षों के लिए नाम ।

राजस्थान में आज तक बहनें अपने भाईयों से उन चौधरियों की तरह बनने को कहा करती है । वचन के पक्के, निडर, हिम्मती और दरियादिल । आज भी रक्षा बंधन के और भात के गीतों में ये पंक्तियां गाई जाती हैं-

" बीरा बणजे तू जायल रो जाट ।

बणजे खिंयाला रो चौधरी ।।“

ढोली व डूम भी गाँव गाँव इस गाथा का बखान करते हुए गाते है " खिंयाला रा चौधरी बडियासर बंका, न मानी राज की शंका ।"

आज भी खिंयाला के जाट इस परंपरा का निर्वाह करते है । “ यदि किसी स्त्री के पीहर में कोई माहिरा भरने वाला नहीं है और वह स्त्री खिंयाला जाकर माहिरा का न्यौता देती है, भले ही स्त्री किसी भी जाति की हो । खिंयाला के जाट सब शामिल होकर उस औरत के ससुराल जाकर माहिरा भरकर आते हैं ।



धनोप माता मंदिर की जानकारी व इतिहास

धनोप माता मंदिर की जानकारी व इतिहास

धनोप माता मंदिर, धनोप भीलवाड़ा


यदि आप भीलवाड़ा के धनोप माता मंदिर के दर्शन और इसके पर्यटक स्थल की जानकारी लेना चाहते हैं तो हमारे इस लेख को पूरा जरूर देखें जिसमें हम आपको धनोप माता मंदिर का इतिहास, दर्शन का समय और यात्रा से जुड़ी अन्य महत्वपूर्ण जानकारी के बारे में बताने वाले है –

मेवाड के शक्तिपीठो में एक प्राचीन शक्तिपीठ धनोप माता का मन्दिर भीलवाड़ा से 80 किलोमीटर की दूरी पर है, यह दिल्ली मुम्बई मेगा हाईवे व बिजयनगर -गुलाबपुरा रेलवे स्टेशन से 30 किलोमीटर की दूरी पर धनोप नामक एक छोटे से गांव में स्थित एक प्रसिद्ध हिन्दू मंदिर है ।

 

संगरिया गांव से 3 किलोमीटर की दूरी पर स्थित शीतला माता को समर्पित धनोप माता मंदिर राजस्थान राज्य के प्रमुख मंदिर में से एक है, जहाँ हर साल बड़ी संख्या में भक्त शीतला माता के दर्शन के लिए आते है । इस मंदिर की वास्तुकला भी काफी आकर्षक है जो इसके अन्य आकर्षण के रूप में कार्य करती है ।

धनोप माता मंदिर एक ऊंचे टीले पर बना हुआ है, जो बेहद प्राचीन प्राकृतिक संरचना है । इस मंदिर में विक्रम संवत 912 भादवा सुदी 2 का शिलालेख भी उपस्थित है, जिससे इस बात का पता चला है कि यह मंदिर लगभग 1100 साल पुराना है । माता का मंदिर धनोप गाँव में स्थित है जिसकी वजह से इस मंदिर को धनोप माता मंदिर कहा जाता है । माना जाता है कि प्राचीन काल में धनोप एक समृद्ध नगर था जिसमें कई सुंदर मंदिर, भवन, बावड़ियाँ, कुण्ड बने थे । इस नगर में दोनों तरफ मानसी और खारी नदी बहती थी, जिनके अवशेष आज भी विद्यमान है । प्राचीन काल में यह नगर राजा धुंध की नगरी थी जिसे “ ताम्बवती ” नगरी भी बोला जाता था ।

आपको बता दें कि राजा के नाम से ही इस जगह का नाम धनोप पड़ा था । धनोपमाता राजा की कुल देवी थी । धनोप माता मंदिर में अन्नपूर्णा, चामुण्डा और कालिका माता की खूबसूरत मूर्ति स्थापित है जिनका मुख पूर्व दिशा की ओर है । इनके अलावा यहां पर भैरु जी का स्थान भी है और शिव-पार्वती, कार्तिकेय, गणेश व चौंसठ योगिनियों की मूर्तियाँ भी है । वैसे तो माता के दर्शन के लिए रोजाना हजारों तीर्थ यात्री आते हैं लेकिन नवरात्रा के दौरान यहां धनोप माता का मेला भी लगता है जिसमें लाखों की संख्या में यात्री शामिल होते हैं ।

धनोप माता


जगत जननी माता धनोप के रोजाना पुष्प और पत्ती से पुजारी श्रृंगार करते हैं, माते श्री को पोशाक में 9 मीटर का चरना ( घाघरा ) और 9 मीटर की ओढ़नी   ( चुनरी ) और आभूषणों व छत्र से श्रृंगार किया जाता हैं ।

माता के दरबार में भक्त गण अपनी मुराद पुरी होने के लिये पुष्प मांगते है, और माता उनकी मुराद पुरी करती हैं ।

धनोप माता मन्दिर ट्रस्ट द्वारा संचालित है, जिसके अध्यक्ष श्री निर्भय सिंह राणावत व सदस्य 5 मुख्य पुजारी हैं, यह ट्रस्ट देवी स्थान की साफ सफाई, लाईट, पानी, बर्तन सहित भक्त गणो की सभी प्रकार की सहायता करता है ।

 

भैरव प्रतिमा धनोप माता मंदिर

धनोप माता मंदिर में माँ दुर्गा 5 रुप में विराजित हैं ( अन्नपूर्णा, अष्टभुजा, चामुण्डा, बीसभुजा और कालिका  )  मन्दिर में 6 गुम्बद व एक शिखर ऊपरी भाग में स्थित हैं, निज मन्दिर के दाई तरफ ओगड़नाथ व बाई तरफ भगवान शिव अपने पूरे परिवार के साथ विराजमान हैं । मन्दिर के बाहर माता की सवारी सिंह विराजमान हैं, जो साक्षात सिंह के समान प्रतीत होती हैं ।

कहा जाता है की पृथ्वीराज चौहान कन्नोज के राजा जयचन्द से युद्ध के पश्चात विश्राम के लिये यहां रुके थे, उन्होंने माताराणी के दर्शन किये और यहां सभा भवन का निर्माण करवाया ।

प्रतिवर्ष नवरात्रा में यहाँ माताराणी का विशाल मेला भरता हैं, जिसमें दूर दूर से श्रद्धालु अपनी मुराद लेकर आते हैं, और माताराणी भी खुले मन से उनकी कामना पूर्ण करती हैं । यहां के पुजारी अपने ओसरे ( बारी ) के दौरान दो माह तक अपने घर पर नहीं जाते है, और नियमानुसार हर 2 माह में पुजारी अपने ओसरे के अनुसार बदल जाते हैं ।


 धनोप माताजी का मंदिर सुबह 6 बजे से रात के 9 बजे तक दर्शन के लिए खुला रहता है ।


मेवाड़ धरा के शक्ति पीठों में धनोप माता मंदिर का नाम मुख्य रुप से आता हैं । सभी माता भक्त पोस्ट को शेयर करें ।

धनोप माता भीलवाड़ा