सिंहासन बत्तीसी की पहली कहानी | रत्न मंजरी पुतली की कथा

रत्न मंजरी पुतली की कथा

सिंहासन बत्तीसी


सिंहासन बत्तीसी की पहली कहानी


राजा भोज सिंहासन बत्तीसी पर बैठने के लिए उत्सुक थे । लेकिन जब पहले दिन राजा भोज ने सिंहासन पर बैठने की कोशिश की तभी सिंहासन से पहली पुतली रत्न मंजरी प्रकट हुई । पहली पुतली रत्न मंजरी ने राजा को अपना परिचय दिया और कहा कि यह सिंहासन विक्रमादित्य का है और उनके जैसा गुणवान और बुद्धिमान ही इस पर बैठने योग्य है । अगर यकीन नहीं होता, तो राजा विक्रमादित्य की यह कहानी सुनकर फैसला करना कि तुम में ऐसे गुण हैं या नहीं । इतना कहने के बाद पहली पुतली रत्न मंजरी ने राजा भोज को कहानी सुनाना शुरू किया ।

एक बार की बात है, अम्बावती नाम का एक राज्य था । वहां के राजा धर्मसेन ने चार वर्णों की स्त्रियों से चार शादियां की थीं । पहली स्त्री ब्राह्मण थी, दूसरी क्षत्रिय, तीसरी वैश्य और चौथी शूद्र । ब्राह्मण स्त्री से हुए पुत्र का नाम ब्राह्मणीत, क्षत्राणी से उन्हें तीन पुत्र थे, जिनके नाम थे शंख, विक्रमादित्य और भर्तृहरि, वैश्य पत्नी से हुए पुत्र का नाम चंद्र था और शूद्राणी के बेटे का नाम धन्‍वतरि था । जब सभी लड़के बड़े हुए, तो ब्राह्मणी के बेटे को राजा ने दीवान बनाया, लेकिन वह अपनी जिम्मेदारी ठीक तरह से संभाल न सका और वो राज्य छोड़कर चला गया । कुछ वक्त तक वो कई जगहों में भटका और फिर वह धारानगरी नाम के राज्य में पहुंचा और वहां उसे एक अच्छा ओहदा मिला, लेकिन एक दिन उसने वहां के राजा को मार दिया और खुद राजा बन गया ।

कुछ वक्त बाद उसने वापस उज्जैन आने का फैसला किया, लेकिन उज्जैन पहुंचते ही उसकी मौत हो गई । उसके बाद क्षत्राणी के बड़े बेटे शंख को लगा कि उसके पिता विक्रम को राज्य का राजा बना सकते हैं । ऐसे में उसने अपने सोते हुए पिता पर हमला कर उसे मार डाला और खुद को राजा घोषित कर दिया । सभी भाइयों को शंख के षड्यंत्र का पता चल गया और सब इधर-उधर निकल पड़ें ।

शंख ने ज्योतिषियों का सहारा लिया और उन्हें अपने भाइयों के बारे में ज्योतिष विद्या के सहारे से पता लगाने को कहा । ज्योतिषियों ने बताया कि विक्रम को छोड़कर उनके सभी भाई जंगली जानवरों का शिकार बन गए थे, जबकि विक्रम बहुत ज्ञानी हो चुका है और आगे चलकर बहुत बड़ा सम्राट बनेगा ।

यह सुनकर शंख को बहुत चिंता होने लगी और उसने विक्रम को मारने की योजना बनाई । शंख के मंत्रियों ने विक्रम को ढूंढ निकाला और शंख को इसकी जानकारी दी । शंख ने एक तांत्रिक के साथ विक्रम को मारने की योजना बनाई । उसने तांत्रिक से कहा कि वो विक्रम को काली की आराधना की बात बताए और उसे सिर झुकाकर काली की पूजा करने को कहे, और जैसे ही विक्रम गर्दन झुकाएगा, तो वो उसकी गर्दन काट देगा ।

तांत्रिक विक्रम के पास गया और उसने शंख के कहे अनुसार विक्रम को काली की आराधना के लिए सिर झुकाने को कहा । शंख भी वहीं छिपा बैठा था । विक्रम ने खतरा महसूस कर लिया, और उसने तांत्रिक को सिर झुकाने की विधि बताने को कहा, तांत्रिक जैसे ही झुका शंख ने उसे विक्रम समझ कर उसकी गर्दन काट दी । इतने में विक्रमादित्य ने शंख के हाथ से तलवार लेकर उसकी भी गर्दन काट दी और अपने पिता की हत्या का बदला ले लिया ।

फिर विक्रमादित्य राजा बने और अपने राज्य और प्रजा का पूरा ध्यान रखने लगे । हर तरफ उनकी जय-जयकार होने लगी ।

एक दिन राजा विक्रमादित्य शिकार करने जंगल गए, उस जंगल में जाने के बाद राजा विक्रमादित्य को बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा था । इतने में उनकी नजर एक खूबसूरत महल पर पड़ी, वो अपने घोड़े पर सवार होकर उस महल में पहुंचे । वो महल राजा बाहुबल का था ।

राजा विक्रम जैसे ही वहां पहुंचे, तो वहां के दीवान ने राजा विक्रमादित्य को कहा कि वो बहुत मशहूर राजा बनेंगे । लेकिन, उसके लिए राजा बाहुबल को उनका राजतिलक करना होगा । साथ ही उसने यह भी कहा कि राजा बाहुबल बहुत दानी है और जैसे ही विक्रमादित्य को मौका मिले वो राजा से स्वर्ण जड़ित सिंहासन मांग लें । यह स्वर्ण जड़ित सिंहासन भगवान शंकर ने राजा को भेंट दिया था । वह सिंहासन राजा विक्रमादित्य को सम्राट बना सकता है ।

राजा बाहुबल ने विक्रमादित्य का अतिथि सत्कार और राज तिलक किया । इस दौरान विक्रमादित्य ने सिंहासन की मांग की और राजा बाहुबल ने विक्रमादित्य को उसका सही हकदार समझते हुए बिना संकोच सिंहासन दे दिया । कुछ दिनों तक बाहुबल के महल में रहने के बाद राजा विक्रमादित्य सिंहासन लेकर अपने राज्य वापस आ गए । सिंहासन की बात दूर-दूर तक फैल गई। हर कोई राजा विक्रमादित्य को बधाई दे रहा था ।

इतना सुनाते ही पुतली रत्न मंजरी ने कहा कि राजा भोज अगर ऐसा कोई काम आपने भी किया है, तो आप इस सिंहासन पर बैठ सकते हैं । यह कहने के बाद पहली पुतली रत्न मंजरी उड़ गई । यह सुनकर राजा भोज ने उस दिन सिंहासन पर बैठने का फैसला टाल दिया और सोचा कि अगले दिन आऊंगा और सिंहासन पर बैठूंगा ।

कहानी से सीख – इस कहानी से यही सीख मिलती है कि कभी लालच नहीं करना चाहिए और दूसरों का बुरा नहीं सोचना चाहिए । जो दूसरों का बुरा चाहते हैं, उनके साथ कभी अच्छा नहीं होता है ।


सिंहासन बत्तीसी कथा

सिंहासन बत्तीसी की कहानी

 सिंहासन बत्तीसी की कहानी


सिंहासन बत्तीसी


बहुत समय पहले राजा भोज उज्जैन नगर पर राज्य करते थे । राजा भोज आदर्शवादी, सामाजिक एवं धार्मिक प्रवृति के न्यायप्रिय राजा थे, समस्त प्रजा उनके राज्य में सुखी एवं सम्पन्न थी । सम्पूर्ण भारतवर्ष में उनकी प्रसिद्धि फैली हुई थी ।

उज्जैन नगरी में कुम्हारों की एक चर्चित बस्ती थी । इस बस्ती के कुम्हार मिट्टी से आकर्षक और मनमोहक बर्तन बनाते थे । उनके द्वारा बनाए बर्तनों और आश्चर्यजनक कार्यों को दूसरे राज्यों में बड़े ही सम्मानपूर्वक देखा जाता था । यही कारण था कि इस बस्ती के सभी कुम्हार सम्पन्न और सम्मानित थे । कुम्हारों की इस बस्ती के आस-पास मिट्टी के छोटे-बड़े टीले थे, जिनकी मिट्टी बड़ी सुगंधित और चिकनी थी । इसी बस्ती में कई वर्षों से एक गड़रिया भी काम करता था जिसका नाम सूरजभान था ।

सूरजभान के घर से कुछ ही दूरी पर उसका एक घनिष्ठ मित्र रहता था । दोनों पड़ोसी होने के साथ-साथ एक दूसरे से इतना प्यार करते थे कि एक दूसरे के लिए अपनी जान तक दे सकते थे ।

लेकिन एक बार छोटे बच्चों के मध्य झगड़े को लेकर दोनों में अनबन हुई तो दोनों की दोस्ती दुश्मनी में बदलती चली गई । लेकिन सूरजभान ने अच्छे अवसर की तलाश कर फिर से दोस्ती को सहज बना दिया । लेकिन दूसरे गांव का एक व्यक्ति उनकी दोस्ती से नफरत करता था और उनकी दोस्ती तुड़वाना चाहता था । किन्तु उसे कोई मौका नहीं मिल रहा था ।

सूरजभान और उसके दोस्त को उस व्यक्ति के ईर्ष्यालु स्वभाव की कोई परवाह नहीं थी । वे दोनों दस-दस आदमियों पर भारी पड़ सकते थे । दोनों बड़े आराम से गांव के आस-पास के क्षेत्र के लोगों के पशुओं को चराया करते थे ।

एक दिन कुम्हार जब मिट्टी खोद रहा था तो मजबूत ईंट, मूर्तियां और घर-गृहस्थी का बहुत सारा सामान निकल आया । समस्त राज्य में यही चर्चा थी कि कभी वहां किसी राजा का दरबार था । वह महल भयानक भूकम्प के कारण देखते ही देखते तबाह हो गया । धीरे-धीरे इस मिट्टी के ऊंचे टीले पर कुम्हारों ने अपनी बस्ती बना ली । इसका मुख्य कारण यहां की चिकनी और लोचदार मिट्टी थी ।

सूरजभान का एक लड़का था । जिसका नाम चंद्रभान   चंद्रभान भी सामाजिकता में अपने पिता के पद चिन्हों पर ही चल रहा था । वह भी अपने पिता की तरह लोगों की भलाई करता था और सभी से मैत्रीपूर्ण व्यवहार करता था ।

जब लोग टीले की खुदाई करके उसमें मिलने वाले सामान को उठाकर ले जाने की कोशिश करते तो चंद्रभान उस सामान के बारे में कहता कि धरती माँ से प्राप्त वस्तुओं पर जनता का समान अधिकार है । कोई भी व्यक्ति इन सामानों को व्यक्तिगत नहीं मान सकता और ये सभी में बराबर-बराबर बटनी चाहिए ।

लोग उसकी बातों का उपहास उड़ाते थे और मूर्ख कहकर उस पर हंसते थे । चंद्रभान शरीर में तो कमजोर था किन्तु दिमागी ताकत में वह किसी से कम नहीं था । वह प्रत्येक दिन टीले पर जाता और लोगों को खुदाई में मिलने वाले सभी सामानों को बराबर-बराबर हिस्सों में बांटता । धीरे-धीरे लोग उसका सम्मान करने लगे । उसका यह स्वभाव देखकर कुछ लोग स्वार्थवश उससे नफरत करने लगे । कुछ लोग कभी- कभी उससे नजरें बचाकर टीले से मिट्टी खोदकर मूल्यवान वस्तुओं की चोरी जैसा कार्य भी कर लेते थे ।

मगर सबसे बड़ी आश्चर्य की बात यह होती थी कि जब चंद्रभान को चोरी से खुदाई करने वाले लोगों का पता चलता तो वह उन लोगों से सामान वापस लेकर, सामान का पुनः बटवारा कर देता था । धीरे-धीरे चंद्रभान के इस तरीके की चर्चा पूरे राज्य में फैलने लगी कि चंद्रभान एक न्यायप्रिय लड़का है । गांव के समस्त लोगों ने उसको सम्मान देना शुरू कर दिया । चंद्रभान की सभी बातें ज्ञान-ध्यान की होती थीं । वह लोगों को टीले पर एकत्रित कर लेता और उन्हें ज्ञान-ध्यान की बातें बताता था । सभी लोग ध्यान लगाकर उसकी बातों को सुना करते थे । कभी-कभी गांव के लोगों के बीच अन्य गांव के लोग भी शामिल हो जाया करते थे और उसकी बातें सुनकर राज्य के अन्य लोगों से भी चर्चा करते थे ।

चंद्रभान जब टीले से उतरकर अपने घर की ओर जाता था तो उसका व्यक्तित्व सभी लोगों को आकर्षित करता था । चंद्रभान हमेशा की तरह प्रत्येक सुबह उस टीले पर चढ़ जाता और आने वाले लोगों की बातें सुनता और कुछ-न-कुछ समाधान प्रस्तुत करता थे । उसकी बातों को सुनकर लोग अब अमल करने लगे थे ।

एक दिन चंद्रभान ने आने वाले लोगों से एक सवाल किया कि हमारे राज्य का राजा कौन है ? तो कुछ लोगों को राजा का नाम तक याद नहीं था । किसी ने तो उसका चेहरा भी नहीं देखा था, बल्कि एक ने कहा जब हमारे गांव में राजा आया तो पूरे गांव की फसल सैनिकों के आने से बर्बाद हो गई और पूरे गांव को सालभर भूखा मरना पड़ा ।

चंद्रभान ने लोगों की बातें सुनकर कहा कि राजा वह होता है जो मुसीबत के समय ही काम नहीं आता बल्कि मुसीबत आने से पहले ही कुछ-न-कुछ बंदोबस्त कर देता है ।

लोगों के मन में चंद्रभान की बात कुछ अटपटी लगी कि उसको राजा भोज के विषय में कुछ भी नहीं बोलना चाहिए था । गांव के लोगों की समस्या सुलझाना एक अलग बात है और पूरे राज्य की देख-रेख करना दूसरी बात है ।

अब गांव वालों को डर लगने लगा कि यदि चंद्रभान की बातें राजा भोज तक पहुंच गईं तो इसे अवश्य ही फांसी पर लटका दिया जाएगा ।

गांव के सभी लोगों के चेहरों का रंग उड़ चुका था । वे सभी सोच रहे थे कि अगर किसी ने इस बात को सुन लिया और जाकर राजा से शिकायत कर दी तो चंद्रभान के साथ-साथ गांव के सभी लोग भी राजा का अपमान करने के मुजरिम माने जाएंगे । क्योंकि सभी गांव वाले भी अपने राजा के विरुद्ध उसकी बातें सुन रहे थे ।

बस्तीवालों के दिल में डर बढ़ता चला जा रहा था । एक-एक करके सभी बस्ती वाले धीरे-धीरे उसकी चौपाल में कम जाने लगे । जब उसको एहसास हुआ कि अब बहुत कम लोग उसकी बातें सुनने आते हैं तो उसने टीले पर जाना कम कर दिया ।

जब उसने गांव वालों से टीले पर न आने का कारण पूछा तो लोगों ने कहा कि अगर तुम्हारी बातें किसी भेदिये ने सुन ली होती तो राजा के सिपाही तुम्हें पकड़कर ले जा चुके होते और साथ में हमें भी तुम्हारे जुर्म की सजा भुगतनी पड़ती ।

चंद्रभान ने गांव वालों को आश्चर्य से देखा, जैसे कि सभी लोग झूठ बोल रहे हों । उसने कहा कि मैंने किसी व्यक्ति विशेष के विषय में कुछ भी नहीं कहा बल्कि मैंने तो सामान्य बात कही कि एक राजा को कैसा होना चाहिए और वो किसी भी देश का हो सकता है । यदि मेरे जैसे सामान्य व्यक्ति के अनुसार अगर हमारा राजा भी उन विषयों का पालन नहीं करता तो तब भी मैं अपनी बात पर अटल हूं । धीरे-धीरे यह बात पूरे राज्य में चर्चा का विषय बन गई । गांव वालों में जो बातें हो रही थीं उसकी सुगबुगाहट दूसरे गांव के उस व्यक्ति तक पहुंची जो सुरजभान से ईर्ष्या करता था। उसने विचार किया, यह मौका अच्छा हाथ लगा है । उसने गांव के अन्य लोगों से भी इस विषय में पूछताछ की ।

उसने सोचा कि सूरजभान से बदला लेने का इससे अच्छा अवसर और कोई नहीं हो सकता है । अगले दिन उसने सारा काम छोड़कर दोपहर के समय चंद्रभान को टीले पर बैठे हुए देखा । वह टीले पर गांव वालों से बात कर रहा था । उसने देखा कि चंद्रभान दो लोगों के आपसी झगड़े निपटा रहा था । दोनों का झगड़ा एक बकरी को लेकर था । उस बकरी पर दो लोग अपना-अपना अधिकार जमाने का प्रयास कर रहे थे । चंद्रभान टीले पर बैठे-बैठे ही उनकी समस्या सुन रहा था ।

व्यक्तियों की समस्या हल करते हुए उसने ऐसा न्याय किया, जिसे देख-सुनकर लोग चकित हो गये । उनमें से एक व्यक्ति खुशी-खुशी अपनी बकरी लेकर चला गया और दूसरा व्यक्ति चंद्रभान के न्याय से संतुष्ट था ।

यह एक उलझा हुआ मामला था, गांव वालों में किसी का भी दिमाग काम नहीं कर रहा था लेकिन चंद्रभान ने असली दावेदार को आसानी से पहचान लिया ।

उसने अगले दिन पड़ोसियों के बीच एक बच्चे को लेकर हुए विवाद को निपटाते देखा । उस दिन भी चंद्रभान के न्याय की तारीफ सभी गांव वाले कर रहे थे ।

जब कुछ ही दिनों में चंद्रभान का नाम दूर-दूर तक फैला तो उससे ईर्ष्या करने वाला दूसरे गांव का व्यक्ति और अधिक परेशान हो उठा कि चंद्रभान की चर्चा दूर-दूर तक फैल चुकी थी । एक दिन उसने मौका पाकर राजा भोज से शिकायत कर दी हे राजा भोज, सूरजभान का लड़का स्वयं अपने आपको राजा मानकर प्रजा की समस्याओं का निदान कर रहा है ।'

'महाराज ! वह आपके लिए अपशब्दों का भी प्रयोग कर रहा है ।'

ईर्ष्यालु भानूप्रताप मन ही मन प्रसन्न हो रहा था कि वह अब किसी भी सूरत में नहीं बच सकता । उसे भी अपने अपमान का बदला चुकाने का अच्छा मौका दिख रहा था ।

राजा भोज ने अपने सिपाहियों को आदेश दिया कि 'वे सूरजभान के लड़के पर नजर रखें । उसके पास न्याय पाने जाने वालों को रोकें और फरियादियों को न्याय के लिए मेरे पास लेकर आएं ।' सिपाहियों ने राजा भोज के आदेश का पालन करना शुरू कर दिया

अगले दिन एक व्यापारी को राज दरबार में लाया गया । राजा भोज ने व्यापारी से राजदरबार में आने का कारण पूछा । व्यापारी ने कहा " महाराज मैं एक छोटा-सा व्यापारी हूं और व्यापार करना मेरा मुख्य पेशा है । नगर से बाहर जाते समय मैंने अपने व्यापारी मित्र के पास कुछ बहुमूल्य वस्तुएं बतौर अमानत रखी थीं, ताकि जब मैं लौटकर आऊं तो मेरी बहुमूल्य वस्तुएं सुरक्षित वापिस मिल सकें । जब मैंने व्यापारी मित्र से वे बहुमूल्य वस्तुएं मांगी तो उसने देने से इंकार कर दिया । इसीलिए हम दोनों का आपस में झगड़ा हो गया है ।"

“महाराज ! मुझे मेरी वस्तुएं वापस दिला दीजिए, मेरे साथ न्याय कीजिए महाराज, यही वस्तुएं परिवार का एक मात्र सहारा हैं ।" राजा ने व्यापारी द्वारा लगाए गये आरोप के बारे में उसके व्यापारी मित्र से पूछा तो व्यापारी मित्र ने कहा कि 'यह बात तो सत्य है कि व्यापार के लिए जाते समय यह अपनी बहुमूल्य वस्तुएं मेरे पास रख गया था । इसने मुझसे वायदा किया था कि वह छ: महीने बाद लौटकर अपनी वस्तुएं वापिस ले लेगा । जब यह छ: महीने बीत जाने के बाद लौटा तो मैंने इसकी अमानत लौटा दी ।'

राजा भोज ने उस व्यापारी से कहा कि क्या तुम्हारे पास कोई गवाह है जो यह सिद्ध कर सके कि तुमने इसकी बहुमूल्य वस्तुएं लौटा दी थीं ।'

“ अवश्य महाराज ! मैंने गांव के मुखिया और मंदिर के पुजारी के सामने सभी वस्तुएँ लौटायी थीं ।'

व्यापारी के मित्र की बात सुनकर राजा भोज ने उन दोनों को बुलाने का आदेश दिया । कुछ देर बाद राजा के सिपाही मुखिया और पुजारी को दरबार में ले आए । दोनों की गवाही व्यापारी के मित्र के पक्ष में थी । उन दोनों की पूरी बात सुनने के बाद राजा ने अपना निर्णय सुनाया ।

“यह व्यापारी झूठ बोल रहा है । इसलिए उसे आदेश दिया जाता है कि वह झूठ बोलने के अपराध में अपने मित्र व्यापारी से क्षमा मांगे वरना उसे राजदण्ड भोगना पड़ेगा ।'

“यह न्याय नहीं, अन्याय है अन्नदाता, यदि मैं चन्द्रभान के पास न्याय हेतु जाता तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता । लेकिन आपके सिपाही जबरदस्ती हमें पकड़कर आपके दरबार में ले आए ।' व्यापारी ने रोते हुए कहा

व्यापारी की बात सुनकर राजा भोज क्रोधित नहीं हुए बल्कि यह सोचने लगे कि सूरजभान का लड़का कैसा न्याय करता है, जिसकी चर्चा हर जगह है । उसे चलकर देखना चाहिए ।

राजा भोज ने कहा- “अगर तुम दोनों मेरे न्याय से असंतुष्ट हो तो जाकर उसी से न्याय मांगकर देख लो । मैं भी देखना चाहता हूं कि वह किस प्रकार का न्याय करता है ।'

राजा भोज की बात सुनकर व्यापारी और दोनों गवाह भी उसके पीछे-पीछे चल दिए । बस्ती के सबसे ऊंचे टीले पर हमेशा की तरह, चंद्रभान पहले से ही बैठा हुआ था । गांव के लोग उसके इर्दगिर्द जमा थे । राजा भोज भी भेष बदलकर वहां बैठ गया और उसका न्याय देखने लगा ।

व्यापारी ने चंद्रभान को जब अपनी विपदा सुनाई तो उसकी बात सुनकर चंद्रभान तेज स्वर में बोला- “न्याय करने के लिए राजा होने की आवश्यकता नहीं, न्याय का अपना दृष्टिकोण होता है । यदि न्यायपूर्ण दृष्टिकोण हो तो कोई भी किसी भी समय सही न्याय कर सकता है ।'

“यदि मेरे वश में होता तो राजा भोज को यहां बुलाकर दिखाता कि न्याय किसे कहते हैं ।' चंद्रभान ने सबसे पहले व्यापारी के गवाह गांव के मुखिया और मंदिर के पुजारी को बुलाया और पूछा कि बताओ उन बहुमूल्य वस्तुओं में कौन-कौन-सी कितनी वस्तुएं थीं ?

चंद्रभान का यह सवाल सुनते ही मुखिया और पुजारी के होश उड़ गये । उन्होंने लड़खड़ाती जुबान में कहा " हमने तो बस पोटली देखी थी ।"

व्यापारी के मित्र से चंद्रभान ने कहा कि तुमने तो कहा था कि उन दोनों को दिखाकर बहुमूल्य वस्तुएं लौटा दी थीं । अरे तुम तो एक बेईमान इनसान हो । दोनों को झूठी गवाही देने के लिये किस प्रकार का सौदा किया था ? व्यापारी मित्र बुरी तरह कांपने लगा, उसकी टांगें लड़खड़ाने लगीं । व्यापारी का मित्र चंद्रभान के कदमों में गिरकर रोने लगा ।

मुझे क्षमा करें ! मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई ।

“ मैं इनकी बहुमूल्य वस्तुएं लौटाने का वादा करता हूं कि घर जाते ही इनकी वस्तुएं दे दूंगा ।'

राजा भोज ने देखा कि सूरजभान का लड़का चतुर और न्याय प्रिय है । राजा उसके न्याय करने का ढंग देखकर काफी प्रभावित हुए और अपने राजमहल वापस आ गये । वह रात भार चंद्रभान के बारे में सोचते रहे । अगले ही दिन उसने चंद्रभान को राजदरबार में बुलाया और कहा कि " मैं तुम्हारे न्याय करने के तरीके से काफी प्रभावित हूं । लेकिन एक बात हमारी समझ में नहीं आई ।'

' कौन-सी बात महाराज ?' चंद्रभान ने हाथ जोड़कर राजा भोज से पूछा

“तुम अनपढ़ और एक मामूली चरवाहे हो फिर भी इतना अच्छा न्याय कैसे कर लेते हो ?”

“यह सब उस टीले की करामात है महाराज ! जब भी मैं उस टीले पर बैठता हूं तो मुझमें न जाने कौन-सी शक्ति आ जाती है । मैं वहां बैठकर ही सही न्याय करता हूं । बाकी जगह तो मुझसे कुछ बोला भी नहीं जाता है ।'

राजा भोज ने काफी सोच-विचार करने के बाद अपने मंत्रियों से विचार-विमर्श किया । अंततः: यह निर्णय हुआ कि टीले के नीचे अवश्य ही कोई देवीय शक्ति है, इसे खुदवाकर देखा जाए ।

अगले ही दिन सैकड़ों मजदूरों ने उस टीले की खुदाई की । बहुत गहराई तक खुदाई करने के पश्चात‌ मजदूरों को एक राजसिंहासन मिला । राजा भोज ने देखा तो सिंहासन की चमक से उसकी आंखें चौंधिया गईं । उनके सामने सोने-चांदी एवं रत्नों से जड़ा हुआ बहुमूल्य सिंहासन था ।

राजा भोज के आदेश पर सिंहासन को राजमहल लाया गया । सिंहासन को साफ किया गया । सफाई के बाद वह और निखर गया । इतना सुन्दर सिंहासन अभी तक किसी ने भी नहीं देखा था ।

सिंहासन के चारों ओर आठ-आठ पुतलियां बनी थीं । पुतलियां इतनी सजीव लगती थीं मानों अभी बोल पड़ेंगी । राजा भोज ने इस सिंहासन पर बैठने के लिए एक दिन निश्चित किया और उस दिन दरबार में जश्न का सा माहौल बना हुआ था । राजा भोज जैसे ही सिंहासन पर बैठने के लिए आगे बढ़े तभी सिंहासन में जड़ी सभी बत्तीस पुतलियां राजा भोज को देखकर हंसने लगीं । राजा भोज ने सहमकर अपने कदम पीछे खींच लिए और उन पुतलियों से पूछा- 'पुतलियो तुम सब मुझे देखकर एक साथ क्‍यों हंस रही हो ?'

राजा भोज का प्रश्न सुनकर एक पुतली रत्नमंजरी राजा भोज को कुछ बताने के लिए आगे आयी ।


प्रथम पुतली रत्नमंजरी की कथा अगले भाग में जारी है ..........

बगड़ावत भारत भाग 2 - भगवान देवनारायण जी जन्म कथा भाग 2

भगवान देवनारायण जी कथा भाग 2


BHAGWAN DEVNARAYAN KATHA

बगड़ावत भारत कथा भाग 1


कथा के अनुसार जब बाघ सिंह बाथ भरते हैं उनकी बाहों में 13 लड़कियां समा जाती है । जिससे बाघ सिंह शादी करने को तैयार हो जाते है । 12 लड़कियों से स्वयं शादी कर लेते हैं और एक लड़की अपने ब्राह्मण मित्र को जो फैरे करवाता है, उसको दे देते है । उन्ही बारह औरतों से बाघ जी की 24 पुत्र होते हैं, वही 24 भाई बगड़ावत कहलाते हैं ।

बगड़ावत गुर्जर जाति से सम्बंध रखते थे और इनका मुख्य व्यवसाय पशुपालन था । वे इस कार्य में प्रवीण थे और उन्होनें अपनी गायों की नस्ल भी सुधारी थी । उनके पास बहुत बढिया नस्ल की गायें थी । गाथा के अनुसार उनके पास काबरा नामक उत्तम नस्ल का सांड था । उनके पास 4 बढिया नस्ल की गायें थी जिनमें सुरह, कामधेनु, पारवती और नांगल गायें थी । इनकी हिफाजत और सेवा में ये लोग लगे रहते थे । बगड़ावत भाईयों में सबसे बड़े तेजाजी, सवाई भोज, नियाजी, बहारावत आदि थे । सवाई भोज की शादी मालवा में साडू खटानी के साथ होती है ।

साडू खटानी के यहां से भी दहेज में बगड़ावतों को पशुधन मिलता है । एक ग्वाला जिसका नाम नापा ग्वाल होता है उसे बगड़ावत साडू के पीहर मालवा से लाते है । नापा ग्वाल इनके पशुओं को जंगल में चराने का काम करता था । इसके अधीन भी कई ग्वाले होते है जो गायों की देखरेख करते थे । गाथा के अनुसार बगड़ावतों के पास 1,80,000 गायें और 1444 ग्वाले थे ।

24 बगड़ावत भाई अपने ग्वालों के साथ गायें चराते थे । एक बार सवाई भोज ने ध्यान दिया कि उनकी गायों में एक गाय ऐसी होती है जो रोज सुबह उनकी गायों के साथ शामिल हो जाती थी और शाम को लौटते समय वह अलग चली जाती है । यह देख सवाई भोज अपने भाई नियाजी को कहते हैं कि इस गाय के पीछे जाओ और पता करो की यह गाय किसकी है और कहां से आती हैं ? और इसके मालिक से अपनी ग्वाली का मेहनताना लेकर आना ।

नियाजी उस गाय के पीछे-पीछे जाते हैं । वह गाय एक गुफा में प्रेवेश कर जाती हैं । नियाजी भी पीछे पीछे वहां पहुंच जाते हैं और देखते है कि गुफा में एक साधु धूनी के पास बैठेकर साधना कर रहे हैं । नियाजी साधु से पूछते हैं कि महाराज यह गाय आपकी है ? साधु कहते है, हां गाय तो हमारी ही है । नियाजी कहते है आपको इसकी गुवाली देनी होगी । यह रोज हमारी गायों के साथ चरने आती है । हम इसकी देखरेख करते हैं ।

साधु कहता है कोई बात नहीं बेटा ग्वाली भी दे देंगे, चलो अपनी झोली फैलाओ । नियाजी अपनी कम्बल की झोली फैलाते हैं । बाबा रुपनाथजी धूणी में से धोबे भर धूणी की राख नियाजी की झोली में डाल देते हैं और कहते है" बेटा मेरे पास तो यही है देने के लिए ।"

नियाजी भी बिना कुछ कहे राख लेकर वहां से अपने घर की ओर चल देते हैं । रास्ते में साधु के द्वारा दी गई धूणी की राख को गिरा देते हैं और घर आकर राख लगे कम्बल को खूंटीं पर टांक देते हैं । जब रात होती है तो अन्धेरें में खूंटीं परटंगे कम्बल से प्रकाश फूटता है । तब सवाई भोज देखते हैं कि उस कम्बल में कहीं-कहीं सोने एवं हीरे जवाहरात लगे हुए हैं तो वह नियाजी से सारी बात पूछते हैं । नियाजी सारी बात बताते हैं । बगड़ावतों को लगता है कि जरुर वह साधु कोई करामाती पहुंचा हुआ है । यह जानकर कि वो राख मायावी थी, सवाई भोज अगले दिन उस साधु की गुफा में जाते हैं और रुपनाथजी को प्रणाम करके बैठ जाते हैं, और बाबा रुपनाथजी की सेवा करते हैं । यह क्रम कई दिनो तक चलता रहता है । एक दिन बाबा रुपनाथजी निवृत होने के लिये गुफा से बाहर कहीं जाते हैं । पीछे से सवाई भोज गुफा के सभी हिस्सो में घूम फिर कर देखते हैं । उन्हें एक जगह इन्सानों के कटे सिर दिखाई देते हैं । वह सवाई भोज को देखकर हंसते हैं । सवाई भोज उन कटे हुए सिरों से पूछते हैं कि हँस क्यों रहे हो ? तब उन्हें जवाब मिलता है कि तुम भी थोड़े दिनों में हमारी जमात में शामिल होनेवाले हो, यानि तुम्हारा हाल भी हमारे जैसा ही होने वाला है । हम भी बाबा की ऐसे ही सेवा करते थे । थोड़े दिनों में ही बाबा ने हमारे सिर काट कर गुफा में डाल दिए । ऐसा ही हाल तुम्हारा भी होने वाला है । यह सुनकर सवाई भोज सावधान हो जाते हैं ।

JODHPURIYA

थोड़ी देर बाद बाबा रुपनाथ वापस लौट आते हैं और सवाई भोज से कहते हैं कि मैं तेरी सेवा से प्रसन्न हुआ । आज मैं तेरे को एक विद्या सिखाता हूं । सवाई भोज से एक बड़ा कड़ाव और तेल लेकर आने के लिये कहते हैं । सवाई भोज बाबा रुपनाथ के कहे अनुसार एक बड़ा कड़ाव और तेल लेकर पहुंचते हैं । बाबा कहते हैं कि आग जलाकर कड़ाव उस पर चढ़ा दे और तेल कड़ाव में डाल दे । तेल पूरी तरह से गर्म हो जाने पर रुपनाथजी सवाई भोज से कहते हैं कि आजा इस कड़ाव की परिक्रमा करते हैं । आगे सवाई भोज और पीछे बाबा रुपनाथजी कड़ाव की परिक्रमा शुरु करते हैं । बाबा रुपनाथ सवाईभोज के पीछे-पीछे चलते हुये एकदम सवाईभोज को कड़ाव में धकेलने का प्रयत्न करते हैं । सवाईभोज पहले से ही सावधान होते हैं, इसलिए छलांग लगाकर कड़ाव के दूसरी और कूद जाते हैं और बच जातेहैं । फिर सवाईभोज बाबा रुपनाथ से कहते हैं महाराज अब आप आगे आ जाओ और फिर से परिक्रमा शुरु करते हैं । सवाईभोज जवान एवं ताकतवर होते हैं । इस बार वह परिक्रमा करते समय आगे चल रहे बाबा रुपनाथ को उठाकर गर्म तेल के कड़ाव में डाल देते हैं । बाबा रुपनाथ का शरीर कड़ाव में गिरते ही सोने का हो जाता है । वह सोने का पोरसा बन जाता है ।

तभी अचानक आकाश से आकाशवाणी होती है कि सवाई भोज तुम्हारी बारह वर्ष की काया है और बारह वर्ष की ही माया है । यानि बारह साल की ही बगड़ावतों की आयु है और बाबा रुपनाथ की गुफा से मिले धन की माया भी बारह साल तुम्हारे साथ रहेगी । और एक आकाशवाणी यह भी होती है की यह जो सोने का पोरसा है इसको तुम पांवों की तरफ से काटोगे तो यह बढेगा और यदि सिर की तरफ से काटोगे तो यह घटता जायेगा । इस धन को तुम लोग खूब खर्च करना, दान-पुण्य करना । इधर बाबा रुपनाथ भी धूणी की राख से पुनः जीवित हो जाते हैं और सवाई भोज को अपना शिष्य बनाते हैं ।

सवाई भोज को बाबा रुपनाथ की गुफा से भी काफी सारा धन मिलता है जिनमें एक जयमंगला हाथी, एक सोने का खांडा, बुली घोड़ी, सुरह गाय, सोने का पोरसा, कश्मीरी तम्बू इत्यादि । दुर्लभ चीजें लेकर सवाई भोज घर आ जाते हैं ।

क्रमशः...............

बगड़ावत भारत कथा जारी है भाग 3

BAGDAWAT KATHA

बगड़ावत भारत भाग 1 - भगवान देवनारायण जी जन्म कथा भाग 1

भगवान देवनारायण जी जन्म कथा भाग 1


BAGDAWAT BHARAT KATHA

कथा की शुरुआत उस समय से होती हैं जब अजमेर में राजा बीसलदेव का राज था । बीसलदेव के छोटे भाई मांडल जी थे जो भगवान शंकर के अनन्य भक्त थे । एक बार राजा बीसलदेव, मांडल जी को सेना के लिए घोड़े खरीदने  मेवाड़ भेजते हैं । गर्मी के दिन थे, अजमेर से रवाना हुए मांडल जी अभी आधे रास्ते ही पहुंचे थे कि प्यास से गला सूखने लगा । प्यास से परेशान होकर मांडल जी ने एक वटवृक्ष की छाव में डेरा डाला और सैनिकों को पानी लाने का आदेश दिया । काफी समय पश्चात सैनिक निराश होकर लौटे और बताया कि यहाँ कोसों दूर तक पानी को कोई स्त्रोत नहीं है । उस समय भगवान शंकर ने पनिहारी का रूप धारण किया और माण्डलजी की प्यास बुझाई । इससे माण्डलजी बहुत खुश हुए और उसी स्थान पर लोगों की भलाई के लिए तालाब निर्माण का कार्य शुरू किया । घोड़े खरीदने के लिए लायी मोहरें जब खत्म हो गई तो बीसलदेव जी से घोड़े खरीदने के नाम पर और मोहरें मंगवाई । काफी समय बीतने पर भी जब माण्डलजी घोड़े लेकर अजमेर नहीं पहुंचे तो बीसलदेव अपने सैनिकों के साथ मेवाड़ के लिए रवाना हुए । इसकी खबर जब माण्डलजी की लगी तो उन्होंने घोड़े सहित उसी तालाब में जल समाधि ले ली । बीसलदेव को यह जानकर बहुत दुख होता है और माण्डलजी की याद में उसी तालाब के बीच में एक विशाल छतरी और मीनार का निर्माण करवाते हैं और वहीं पर माण्डलजी के नाम पर माण्डल गांव की नींव रखी जाती है ।

माण्डल जी के पुत्र हरिराम जी थे जिन्हें शिकार खेलने का शौक था, एक बार राजा बिसलदेव के राज्य में पुष्कर के नजदीकी गांव में एक आदमखोर शेर ने आतंक फैला दिया । शेर रात को चुपके से गांव में प्रेवेश करता और छोटे-छोटे बच्चो को उठा कर ले जाता था । कई शिकारियों को बुलाया पर कोई भी शेर को मार नहीं पाया बल्कि इस चक्कर में खुद मारे गए । रोजाना बच्चों के गायब होने से दुखी होकर गांववालों ने तय किया कि शेर को जंगल में ही भोजन के रूप में एक आदमी भेज दिया जाएगा ताकि वह गांव में प्रेवेश न करे, और एसा ही किया जाने लगा । एक बार हरिराम जी शिकार खेलते हुए उस गांव के नजदीक पहुंचे और सूर्यास्त होने के कारण रात्रि विश्राम वहीं करने का निश्चय किया और रात बिताने के लिए गांव के बाहर की तरफ बनी झोपड़ी में पहुंचे और वहां मौजूद बुढ़िया से उनकी झोपड़ी में रात बिताने की अनुमति मांगी, बुढ़िया ने खुशी खुशी हरिराम जी को रात बिताने की अनुमति दे दी ।

रात को हरिराम जी ने देखा कि बुढ़िया अपने बेटे को बड़े प्यार से खाना खिला रही थी और साथ ही रो रही थी । हरिरामजी ने बुढ़िया से उसके रोने का कारण पूंछा, तब बुढ़िया ने हरिरामजी को आदमखोर शेर के बारे में बताया और कहा की आज उनकी बारी है । एक बेटा पहले ही शेर का भोजन बन चुका है और आज रात दूसरे बेटे की बारी है । यह सुनकर हरीरामजी बुढिया को कहते हैं कि मां । आपने मुझे आसरा दिया है, इसलिए मैं आपका कर्जदार हूँ , मैं आज तेरे बेटे की जगह शेर का भोजन बनने के लिए चला जाता हूं ।

यह कहकर हरिराम जी जंगल में शेर की गुफा की ओर जाते हैं और गुफा से कुछ दूरी पर आटे का एक इंसाननुमा पुतला बनाकर खड़ा कर देते हैं और खुद पास की झाड़ी में छुप जाते हैं । जब शेर आटे के पुतले को अपना शिकार समझकर हमला करता हैं तो हरीरामजी झाड़ी से बाहर आकर तलवार के एक ही वार से शेर की गर्दन अलग कर देते हैं ।

इसके बाद हरिराम जी शेर का कटा हुआ सिर हाथ में लेकर अपनी खून से सनी तलवार को धोने के लिए पुष्कर घाट की ओर जाते हैं । उसी रास्ते में लीला सेवड़ी नामक एक औरत रहती थी । जो सुबह सुबह सबसे पहले उठकर पुष्कर घाट पर नहा धोकर वराह भगवान की पूजा करने के लिये जाती थी । उसने यह प्रण ले रखा था कि वराह भगवान की पूजा करने के बाद ही किसी इन्सान का मुँह देखेगी । 

इधर पुष्कर घाट पहुंच कर हरीरामजी तलवार को धोने के लिए सीढ़ियों से नीचे उतरते हैं, उधर लीला सेवड़ी जो वराह भगवान की पूजा कर रही होती है, आहट सुनकर पीछे मुड़कर देखती है । हरीरामजी अचानक सामने लीला सेवड़ी को देख हड़बड़ाहट में शेर का कटा हुआ सिर आगे कर देते है ।

जिससे लीला सेवड़ी को हरिराम जी का सिर तो शेर का और धड़ इन्सान का दिखाई देता है । वह हरिराम जी से कहती है कि यह तुमने सही नही किया ? अब मेरे जो सन्तान होगी वह ऐसी ही होगी, जिसका सिर तो शेर का होगा और शरीर आदमी का । अब लीला सेवड़ी कहती है कि आपको मेरे साथ विवाह करना होगा ।

हरीरामजी सोचते है कि ऐसी सती औरत कहाँ मिलेगी, और विवाह के लिये तैयार हो जाते हैं । और विवाह के कुछ समय पश्चात हरीरामजी और लीला सेवड़ी के यहां एक सन्तान पैदा होती है, जिसका सिर तो शेर का और बाकि शरीर मनुष्य का होता है ।

पैदा होते ही हरीरामजी उस बच्चे को लेकर एक बाग में बरगद के पेड़ की कोचर में छिपा कर चले आते हैं । दूसरे दिन बाग का माली आता है और देखता है कि बाग तो एक दम हरा भरा हो गया है। यह क्या चमत्कार है और वह पूरे बाग में घूम फिर कर देखता है तो उसे बरगद की खोल में एक नवजात शिशु के रोने की आवाज सुनाई देती है और बाग का माली दौड़ कर बरगद के पेड़ की खौल में से बच्चे को निकलता है ।

वह यह देखकर दंग रह जाता है कि बच्चे का मुँह शेर का और शरीर इन्सान का है । इस अनोखे बच्चे को लेकर माली, राजा के पास लेकर जाता है ।

SAWAI BHOJ ASIND

बच्चे को देखकर हरिराम जी राजा बीसलदेव को सारी बात बात देते है, तब उस बच्चे के लालन-पालन का जिम्मा राजा बीसलदेव स्वयं लेने के लिए तैयार हो जाते हैं, और उस बच्चे का नाम बाघ सिंह ( बाघराव ) रख देते हैं । बाघ सिंह की देख-रेख के लिए उस बाग में एक ब्राह्मण को नियुक्त कर देते हैं । बाघ सिंह उसी बाग में खेलते कूदते बड़े होते हैं ।

राजस्थान में यह प्रथा है कि सावन के महीने मे तीज के दिन कुंवारी कन्याएं झूला झूलने के लिये बाग में जाती है । यही जानकर उस दिन बाघ सिंह और ब्राह्मण भी अपने बाग में झूले डालते हैं ।

बाघ सिंह अपने बाग में झूला झूलने के लिये आयी हुई कन्याओं से झूलने के लिये एक शर्त रखते हैं कि झूला झूलना है तो मेरे साथ फैरे लेने होगें ? लड़कियां पहले तो मना कर देती है लेकिन फिर आपस में बातचीत करती है कि फैरे लेने से कोई इसके साथ शादी थोड़े ही हो जायेगी। कुछ लड़कियां बाघ सिंह के साथ फैरे लेकर झूला झूलने के लिये तैयार हो जाती है और कुछ वापस अपने घर लौट जाती हैं ।

बाघ सिंह के साथ उसका ब्राह्मण मित्र लड़कियों के फैरे करवाता है और झूला झूलने की इजाजत देता है । उस दिन लड़कियां झूला झूलकर अपने घर वापस आ जाती हैं । जब वह लड़कियां बड़ी होती है तब उनके घर वाले उनकी शादी के सावे ( लग्न ) निकलवाते हैं, लेकिन जब उनकी शादी के लग्न नहीं मिलते हैं तब घर वालों को चिन्ता होती है कि आखिर इनके लग्न क्यों नहीं मिल रहे हैं ।

लड़कियों के माता-पिता राजा बिसलदेवजी के पास जाकर यह बात बताते हैं । राजा बिसलदेवजी एक युक्ति निकालते हैं और सब लड़कियों को एक जगह एकत्रित करते हैं और उनके पास पहरे पर एक बूढ़ी दाई को बैठा देते हैं, और कहते हैं कि यह बहरी है इसे कुछ सुनाई नहीं देता है । सारी लड़कियां आपस में खुसर-फुसर करती हैं और कहती हैं कि मैंने कहा था कि बाघ सिंह के साथ फैरे नहीं लो और तुम नहीं मानी । उसी का यह अंजाम है कि आज अपनी शादी नहीं हो पा रही है । यह बात बूढ़ी औरत सुन लेती है, और दूसरे दिन राजा बिसलदेवजी को सारी बात बताती है । फिर राजा बिसलदेवजी बाघ सिंह को बुलाते हैं और उन्हें फटकार लगाते हैं । बाघ सिंह कहते है कि मैं एक बाथ भरूंगा, जो लड़कियां मेरी बाथ में आ जायेगी उनसे तो मैं शादी कर लूंगा और बाकि लड़कियों के सावे निकल जायेगें । बाघ सिंह जब बाथ भरते हैं उनकी बाहों में १३ लड़कियां समा जाती है । जिससे बाघ सिंह शादी करने को तैयार हो जाते है । 12 लड़कियों से स्वयं शादी कर लेते हैं और एक लड़की अपने ब्राह्मण मित्र को जो फैरे करवाता है, उसको दे देते है । उन्ही बारह औरतों से बाघ जी की 24 पुत्र होते हैं, वही 24 भाई बगड़ावत कहलाते हैं ।

क्रमशः..........

बगड़ावत भारत कथा भाग 2 जारी है


भगवान देवनारायण