किसान की होशियार बेटी राजस्थानी लोककथा

किसान की होशियार बेटी राजस्थानी लोककथा

Rajasthani lokkatha


एक समय की बात है रामपुर गांव में बलदेव नाम का एक किसान रहता था। उसकी एक बेटी मीना थी जो बहुत सुन्दर और होशियार थी। बलदेव के खेत जमींदार के पास गिरवी थे।


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बलदेव खेतों में मेहनत करके घर का गुजारा चलाता था। उसने 3-4 महीने खेत में काम करके एक फ़सल उगाई थी। जो फ़सल अब पक कर तैयार हो चुकी थी। बलदेव ने अपनी सारी फ़सल को बेचकर पैसे कमा लिए। बलदेव फ़सल बेचकर जो भी पैसे मिलते थे उसके तीन हिस्से लगाता था।

एक हिस्सा वह घर के ख़र्च के लिए रखता था। दूसरा हिस्सा जमींदार को ब्याज़ के रूप में देता था और तीसरा हिस्सा अपनी बेटी मीना की शादी के लिए अलग से रख देता था। फ़सल बिकने पर जमींदार अपना ब्याज़ लेने बलदेव के घर पहुंच गया।

वहाँ पर उसने मीना को देखा जो की बहुत सुन्दर थी। उसके बाद वह बलदेव से अपना ब्याज़ लेकर चला गया। कुछ दिनों में बलदेव अपनी अगली फ़सल उगाने में लग गया। 3-4 महीने की मेहनत के बाद फ़सल उग गयी और कुछ दिनों के बाद उसकी कटाई होने वाली थी।

लेकिन तभी बारिश शुरू हो गयी और कुछ दिनों तक लगातार बारिश होती रही जिससे सारी फ़सल ख़राब हो गयी। इससे बलदेव और उसकी बेटी मीना बहुत दुखी हो गए। कुछ दिनों के बाद जमींदार अपना ब्याज़ लेने के लिए बलदेव के घर पर पहुंच गया।

बलदेव ने उसको बताया की अबकी बार बारिश की वजह से उसकी सारी फ़सल ख़राब हो गयी। जमींदार ने मीना की तरफ़ देखा और बलदेव से बोला यदि तुम अपनी बेटी की शादी मुझसे करा देते हो तो मै तुम्हारा सारा कर्ज माफ़ कर दूंगा। इस पर बलदेव ने आपत्ति जताई तो जमींदार ने एक तरकीब बताई की हम एक खेल खेलते है।

इसमें में एक काला और सफ़ेद पत्थर मै एक मटके के अंदर डाल दूंगा। मीना को उसमे से बिना देखे एक पत्थर को निकलना है। यदि वह काला पत्थर निकालेगी तो मीना को मुझसे शादी करनी होगी और मै तुम्हारा सारा कर्ज माफ़ कर दूंगा।

यदि वह सफ़ेद पत्थर निकालेगी तो उसको मुझसे शादी नहीं करनी पड़ेगी और मै तुम्हारा सारा कर्ज माफ़ कर दूंगा।

बलदेव को जमींदार का ब्याज़ भी देना था यदि वह उसकी बात नहीं मानता तो उसने खेल के लिए हा कर दी। जमींदार बहुत धोखेबाज़ था उसने जमीन से दोनों काले पत्थर लिए  और मटके के अंदर डाल दिए। मीना ने उसको दोनों काले पत्थर मटके के अंदर डालते हुए देख लिया।

मीना बहुत होशियार थी उसने कुछ देर सोचा फिर मटके के अंदर से एक पत्थर निकाला और गिरने का बहाना बना कर जमीन में गिर गयी और उस पत्थर को बाकी सभी पत्थर में मिला दिया। जमींदार और बलदेव सोचने लगे जो पत्थर मीना ने उठाया था वह कैसे पता चलेगा तो मीना बोली इसका पता हम मटके के अंदर के पत्थर से लगा सकते है।

मटके के अंदर पत्थर देखा तो उसका रंग काला था इसका मतलब मीना ने जो पत्थर उठाया और जो हाथ से गिर गया था उसका रंग सफ़ेद था। इस तरह मीना की होशियारी से बलदेव का कर्ज भी माफ़ हो गया और मीना को जमींदार से शादी भी नहीं करनी पड़ी ।

मीना ने समझदारी से काम लिया और जमीदार के चंगुल से खुद को बचा लिया ।


ढोला मारू की राजस्थानी प्रेमकथा

ढोला-मारू की राजस्थानी लोक-कथा

ढोला-मारू की राजस्थानी लोक-कथा

ढोला मारू

राजस्थान की लोक कथाओं में बहुत सी प्रेम कथाएँ प्रचलित है पर इन सबमे ढोला मारू प्रेम गाथा विशेष लोकप्रिय रही है इस गाथा की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आठवीं सदी की इस घटना का नायक ढोला राजस्थान में आज भी एक-प्रेमी नायक के रूप में स्मरण किया जाता है ।

लोककथाओं के अनुसार ढोला नरवर के राजा नल का पुत्र था जिसे इतिहास में ढोला के नाम से जाना जाता है, ढोला का विवाह बालपने में जांगलू देश ( वर्तमान बीकानेर ) के पूंगल नामक ठिकाने के स्वामी पंवार राजा पिंगल की पुत्री मारवणी के साथ हुआ था । उस वक्त ढोला तीन वर्ष का जबकि मारवणी मात्र डेढ़ वर्ष की थी । इसीलिए शादी के बाद मारवणी को ढोला के साथ नरवर नहीं भेजा गया । बड़े होने पर ढोला की एक और शादी हो गयी । बचपन में हुई शादी के बारे को ढोला भी लगभग भूल चूका था । उधर जब मारवणी जवान हुई तो मां बाप ने उसे ले जाने के लिए ढोला को नरवर कई सन्देश भेजे । ढोला की दूसरी रानी को ढोला की पहली शादी का पता चल गया था उसे यह भी पता चल गया था कि मारवणी जैसी बेहद खुबसुरत राजकुमारी कोई और नहीं सो उसने ईर्ष्या के चलते राजा पिंगल द्वारा भेजा कोई भी सन्देश ढोला तक पहुँचने ही नहीं दिया वह सन्देश वाहकों को ढोला तक पहुँचने से पहले ही मरवा डालती थी ।

उधर मारवणी के अंकुरित यौवन ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया । एक दिन उसे स्वप्न में अपने प्रियतम ढोला के दर्शन हुए उसके बाद तो वह ढोला के वियोग में जलती रही उसे न खाने में रुचि रही न किसी और कार्य में । उसकी हालत देख उसकी मां ने राजा पिंगल से ढोला को फिर से सन्देश भेजने का आग्रह किया, इस बार राजा पिंगल ने सोचा सन्देश वाहक को तो राणी मरवा डालती है इसीलिए इस बार क्यों न किसी चतुर भांड को नरवर भेजा जाये, जो गाने के बहाने ढोला तक सन्देश पहुंचा उसे मारवणी के साथ हुई उसकी शादी की याद दिला दे ।

जब भांड नरवर के लिए रवाना हो रहा था तब मारवणी ने उसे अपने पास बुलाकर मारू राग में दोहे बनाकर दिए और समझाया कि कैसे ढोला के सम्मुख जाकर गाकर सुनाना है । भांड ने मारवणी को वचन दिया कि वह जीता रहा तो ढोला को जरूर लेकर आएगा और मर गया तो वहीं का होकर रह जायेगा ।

चतुर भांड याचक बनकर किसी तरह नरवर में ढोला के महल तक पहुँचने में कामयाब हो गया और रात होते ही उसने ऊँची आवाज में गाना शुरू किया । उस रात बादल छा रहे थे, अँधेरी रात में बिजलियाँ चमक रही थी । झीणी - झीणी पड़ती वर्षा की फुहारों के शांत वातावरण में भांड ने मल्हार राग में गाना शुरू किया ऐसे सुहाने मौसम में भांड की मल्हार राग का मधुर संगीत ढोला के कानों में गूंजने लगा और ढोला फन उठाये नाग की भांति राग पर झुमने लगा तब भांड ने साफ़ शब्दों में गाया -

"ढोला नरवर सेरियाँ, मारूवणी पूंगल गढ़माही ।"

गीत में पूंगल व मारवणी का नाम सुनते ही ढोला चौंका और उसे बालपने में हुई शादी की याद ताजा हो आई । भांड ने तो मल्हार व मारू राग में मारवणी के रूप का वर्णन ऐसे किया जैसे पुस्तक खोलकर सामने कर दी हो । उसे सुनकर ढोला तड़फ उठा ।

भांड पूरी रात गाता रहा । सुबह ढोला ने उसे बुलाकर पूछा तो उसने पूंगल से लाया मारवणी का पूरा संदेशा सुनाते हुए बताया कि कैसे मारवणी उसके वियोग में जल रही है ।

आखिर ढोला ने मारवणी को लाने हेतु पूंगल जाने का निश्चय किया पर उसकी दूसरी रानी ने उसे रोक दिया । ढोला ने कई बहाने बनाये पर राणी उसे किसी तरह रोक देती । पर एक दिन ढोला एक बहुत तेज चलने वाले ऊंट पर सवार होकर मारवणी को लेने चल ही दिया और पूंगल पहुँच गया ।

मारूवणी ढोला से मिलकर ख़ुशी से झूम उठी । दोनों ने पूंगल में कई दिन बिताये और एक दिन ढोला ने मारवणी को अपने साथ ऊंट पर बिठा नरवर जाने के लिए राजा पिंगल से विदा ली । कहते है रास्ते में रेगिस्तान में मारूवणी को सांप ने काट खाया पर शिव पार्वती ने आकर मारूवणी को जीवन दान दे दिया । आगे बढ़ने पर ढोला उमर-सुमरा के षड्यंत्र में फंस गया, उमर-सुमरा ढोला को घात से मार कर मारूवणी को हासिल करना चाहता था सो वह उसके रास्ते में जाजम बिछा महफ़िल जमाकर बैठ गया । ढोला जब उधर से गुजरा तो उमर ने उससे मनुहार की और ढोला को रोक लिया । ढोला ने मारूवणी को ऊंट पर बैठे रहने दिया और खुद उमर के साथ अमल की मनुहार लेने बैठ गया । भांड गा रहा था और ढोला उमर अफीम की मनुहार ले रहे थे उमर सुमरा के षड्यंत्र का ज्ञान भांड की पत्नी को था वह भी पूंगल की बेटी थी सो उसने चुपके से इस षड्यंत्र के बारे में मारूवणी को बता दिया ।

मारूवणी ने ऊंट के एड मारी, ऊंट भागने लगा तो उसे रोकने के लिए ढोला दौड़ा, पास आते ही मारूवणी ने कहा - धोखा है जल्दी ऊंट पर चढो और ढोला उछलकर ऊंट पर चढ़ा गया । उमर-सुमरा ने घोड़े पर बैठ पीछा किया पर ढोला का वह काला ऊंट उसके कहाँ हाथ लगने वाला था । ढोला मारूवणी को लेकर नरवर पहुँच गया और उमर-सुमरा हाथ मलता रह गया ।

नरवर पहुंचकर ढोला मारुवणी के साथ आनंद से रहने लगा ।

किसान की होशियार बेटी राजस्थानी लोककथा

लोकदेवता सत्यवादी वीर तेजाजी की जीवनी व इतिहास

श्री सत्यवादी वीर तेजाजी कथा व गौरवशाली इतिहास

VEER TEJAJI

जाट वीर धौलिया वंश, गांव खरनाल के मांय ।

आज दिन सुभस भंसे, बस्ती फूलां छाय ।।

शुभ दिन चौदस वार गुरु, शुक्ल माघ पहचान ।

सहस्र एक सौ तीस में, प्रकटे अवतारी ज्ञान ।।


सत्यवादी श्री वीर तेजाजी जाट का जन्म माघ शुक्ल चौदस, संवत 1130 (29 जनवरी 1074) के दिन सूर्योदय के शुभ मुहूर्त में, नागौर जिले के खरनाल गांव के धौलिया गौत्रीय जाट घराने में हुआ ।

तेजाजी के पिता का नाम ताहड़देव ( थिरराज ) और माता का नाम रामकुंवरी था ।

तेजाजी की वंशावली कुछ इस प्रकार है

1. महारावल 2. भौमसेन 3. पीलपंजर 4. सारंगदेव 5. शक्तिपाल 6. रायपाल 7. धवलपाल 8. नयनपाल 9. घर्षणपाल 10. तक्कपाल 11. मूलसेन 12. रतनसेन 13. शुण्डल 14. कुण्डल 15. पिप्पल 16. उदयराज 17. नरपाल 18. कामराज 19. बोहितराव ( बक्सा जी ) 20. ताहड़देव ( थिरराज ) 21. तेजाजी ( तेजपाल )


जिस समय तेजाजी का जन्म हुआ, दादा बक्सा जी खरनाल गाँव के मुखिया थे । खरनाल परगने के अधिकारक्षेत्र में 24 गांव आते थे ।

तेजाजी का ननिहाल अजमेर जिले की किशनगढ़ तहसील के त्यौद गांव में ज्याणी गोत्र में था । तेजाजी के नाना का नाम दुल्हण जी और मामा का नाम हेमुजी था ।

ताहड़देव का विवाह त्यौद के मुखिया दुल्हण जी की पुत्री रामकुंवरी के साथ हुआ परंतु जब शादी के बारह वर्षों पश्चात भी संतान सुख प्राप्त नहीं हुआ, तो बक्सा जी ने ताहड़देव का दूसरा विवाह अठ्यासन के मुखिया करणा जी फड़ौदा की पुत्री रामीदेवी के साथ करवा दिया ।

इधर पुत्र प्राप्ति के लिए रामकुंवरी भी अपने पति ताहड़देव से अनुमति लेकर अपने पीहर त्यौद के जंगलों में गुरु मंगलनाथ के मार्गदर्शन में नागदेवता की आराधना करने लगी ।

12 वर्षों की कड़ी तपस्या के फलस्वरूप रामकुंवरी को नागदेवता से पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद मिला, तत्पश्चात रामकुंवरी पुनः खरनाल लौट आई ।

इस बीच रामीदेवी से ताहड़देव को पांच पुत्र प्राप्त हुए ( रूपजीत, रणजीत, गुणजीत, महेशजी, नागजीत ) ।

समय बीतने पर रामकुंवरी के गर्भ से पुत्र तेजाजी व पुत्री राजल पैदा हुए ।

VEER TEJAJI

रामकुंवरी ने पति ताहड़देव से तेजाजी के जन्म की खुशी में पुष्कर पूर्णिमा के दिन पुष्कर स्नान और वापसी में त्यौद के जंगलों में नागदेवता की पूजा की इच्छा जताई । ताहड़देव ने सहर्ष स्वीकृति दी और तेजाजी के जन्म के 9 वें महीने पुष्कर स्नान के लिए रवाना हुए । ताहड़देव के साथ उनके भाई आसकरण भी पुष्कर गए ।

पुष्कर में पनेर के मुखिया रायमल जी भी सपरिवार अपनी पुत्री पेमल के जन्म की खुशी में पुष्कर स्नान के लिए आये हुए थे । वहीं पर आसकरण और रायमल में मित्रता हो गई और बातों ही बातों में उन्होंने इस मित्रता को एक रिश्ते में बदलने की ठानी । तेजाजी और पेमल का विवाह करके ।

रायमल जी ने ताहड़देव से तेजा और पेमल के रिश्ते की बात की । ताहड़देव भी इस रिश्ते के लिए सहर्ष तैयार हो गए । विवाह का मुहूर्त दो दिन पश्चात विक्रम संवत 1131 की पुष्कर पूर्णिमा को गोधुली वेला में निश्चित किया गया । उस समय तेजाजी की उम्र मात्र 9 महीने और पेमल की उम्र 6 महीने थी ।


रीति रिवाजों के अनुसार विवाह की सहमति के लिए तेजा और पेमल के मामाओं को आमंत्रित किया गया । तेजा के मामा हेमूजी सही समय पर पुष्कर पहुँच गए, परन्तु पेमल के मामा खाजू काला को जायल से पुष्कर पहुँचने में देर हो गई । खाजू काला जब पुष्कर  पहुंचा । तेजा और पेमल के फेरे हो चुके थे, और जब खाजू काला को पता चला कि उसकी भांजी का विवाह ताहड़देव के पुत्र तेजा के साथ सम्पन्न हुआ है, वह आग बबूला हो उठा । जायल के काला जाटों और धौलिया जाटों के मध्य पीढ़ियों पुरानी दुश्मनी थी । क्रोधित खाजू काला ने अपशब्दों का प्रयोग किया और तलवार निकाल ली । झगड़े में खाजू काला मारा गया ।

पहले से चली आ रही दुश्मनी में एक गाँठ और पड़ गई । तेजा जी की सासु बोदलदे अपने भाई की मौत से काफी नाराज हुई और मन ही मन अपने भाई की मौत का बदला लेने और बेटी पेमल को अपने भाई के हत्यारों के घर न भेजने का प्रण लिया ।

समय बीतता गया और बक्सा जी ने वृद्धावस्था को देखते हुए खरनाल का मुखिया पद पुत्र ताहड़देव को दे दिया । प्रतिदिन की तरह एक बार जब तेजाजी बड़कों की छतरी में स्थापित शिवलिंग पर जल चढ़ाकर आ रहे थे, रास्ते में ठाकुरजी के मंदिर के बाहर भीड़ लगी देखी । नजदीक जाने पर पता चला कि पाँचू मेघवाल नाम के बच्चे ने भूख से त्रस्त होकर ठाकुरजी के मंदिर में प्रवेश कर प्रसाद में से एक लड्डू उठा लिया था । इस बात से नाराज पुजारी उसकी पिटाई कर रहा था । तेजाजी ने पुजारी के लात-घूसों से पांचू को बचाया और सीने से लगाकर सान्त्वना प्रदान की । पंडित जी ने गुस्से से बताया कि यह नीची जाति का लड़का है और इसने ठाकुरजी के मंदिर में प्रवेश करने और प्रसाद चोरी करने का अपराध किया है । तेजाजी ने पुजारी को समझाया कि छोटी जाति की सबरी भीलनी के जूठे बेर भी तो आपके ठाकुर जी ने स्वयं खाये थे और भगवान श्रीकृष्ण भी तो गुर्जरियों से माखन चुरा कर खाया करते थे । तेजाजी ने बताया कि ठाकुर जी का निवास अकेली प्रतिमा में ही नहीं है बल्कि प्रत्येक प्राणी में है । बालक तो वैसे ही परमात्मा का स्वरूप होता है । उस दिन के पश्चात पाँचू मेघवाल तेजाजी के सानिध्य में रहा ।


ताहड़देव का मित्र लक्खी बंजारा (लाखा बालद) एक बार जब माल लादकर खरनाल के रास्ते सिंध की ओर रहा था, ताहड़देव के आग्रह पर खरनाल में डेरा लगाया और ताहड़देव कि मेजबानी का आनंद लेने लगा । उसी दिन लाखा के डेरे में एक गर्भवती घोड़ी ने एक सफेद रंग की बछिया को जन्म दिया । बछिया के जन्म लेते ही उसकी मां मर गई ।

लाखा ने नवजात बछिया को उपहार स्वरूप बालक तेजा को दे दी । तेजाजी ने उस बछिया की सेवा-सुश्रुषा की उसे गाय का दूध पिलाकर बड़ा किया । तेजाजी ने उसका नाम " लीलण " रखा । लीलण तेजाजी की प्रिय सखी बन गई ।


समय अपनी गति से आगें बढ़ता रहा । तेजाजी ने अपने भाईयों के साथ पिता ताहड़देव और दादा बक्सा जी से मल्लयुद्ध और भाला चलाना सीखा । काका आसकरण ने तेजा को तलवार चलाना सिखाया । इसी बीच लुटेरों ने खेतों को देखने गए ताहड़देव और आसकरण पर धोखे से हमला किया और उनकी हत्या कर दी ।

पंचों ने पुनः बक्सा जी को खरनाल के मुखिया पद पर बिठाया ।

9 वर्ष की उम्र में तेजाजी कुछ वर्षों के लिए अपने ननिहाल त्यौद चले गए और वहीँ पर गुरु मंगलनाथ से शिक्षा लेने लगे । त्यौद में मामा हेमुजी से धनुर्विद्या और तलवारबाजी सिखना जारी रखा ।

16 वर्ष के होने पर तेजाजी खरनाल वापस लौटे । उस समय खरनाल चोरों और लुटेरों के चौतरफा हमले झेल रहा था । तेजाजी ने आते ही खरनाल को चोर गिरोह के आतंक से मुक्ति दिलाई ।


" गाज्यौ - गाज्यौ जेठ-आषाढ़ कँवर तेजा रे ।

लगतो ही गाज्यौ रे सावण-भादवो ।।

सूतो काईं सुख भर नींद कँवर तेजा रे ।

थारोड़ा साथिड़ा बीजै बाजरो ।"


संवत 1160 का वर्ष था । इस बार इंद्र देव कुछ ज्यादा ही मेहरबान हुए और जेठ - आषाढ़ माह में ही भरपूर बारिश होने लगी । पुराने समय में गांव के मुखिया द्वारा हलोतिया की रस्म करने के पश्चात ही किसान अपने खेतों को जोतने जाते थे । दादा बक्साजी किसी काम से गाँव से बाहर गये हुए थे । तब माता रामकुंवरी ने सुबह के समय जगाया और हलोतिया करने भेजा । तेजाजी ने बैलों को संवारा और बीज उठाकर खेत को चले गए । पहले बीजों को उछाल कर खेत जोता जाता था ।

तेजाजी ने पहली बार बीज को जमीन में हल द्वारा ऊर कर बोना सिखाया । एक कतार में बोना सिखाया । कीट-पतंगों से बचने के लिए अलग-अलग तरकीबें सुझाई । इसलिए तेजा जाट को कृषि वैज्ञानिक कहा जाता है और पूरी किसान कौम उनको एक महान कृषि वैज्ञानिक व महापुरुष मानती है ।


TEJAJI MANDIR SURSURA

भूखे पेट खेतों में आये तेजाजी ने दोपहर तक 12 कोस की आवड़ी बो दी । उनके लिए खाना व बैलों के लिए चारा उनकी भाभी बड़े देर से लाई थी । तेजाजी ने नाराजगी जाहिर की तो भाभी ने ताना दिया कि " आपकी परणाई अपने घर बैठी है उसे ले आओ वो जल्दी खाना ले आएगी ।"

यह ताना तेजाजी के घाव कर गया । तेजाजी ने बैलों को चरने के लिए खुले छोड़ दिये और लीलण पर सवार होकर घर आ गए । माता रामकुंवरी से अपने विवाह के बारे में जानकारी पूँछी तो पता चला कि, पेमल के मामा की मौत के कारण यह बात दोनों परिवारों ने किसी को बताई नहीं थी और इसी घटना का बदला लेने के लिए पेमल की मां ने अपने भाई बालिया नाग और धर्मभाई कालिया मीणा लुटेरों से सहयोग मांगा था । कालिया-बालिया ने मिलकर षड्यंत्र कर ताहड़देव और आसकरण की हत्या कर दी थी । बोदल दे, पेमल की शादी अन्यत्र करने की सोच रही है ।

तेजाजी को शादी की जानकारी प्राप्त हो चुकी थी । अब तेजाजी पेमल को लाने की तैयारी करने लगे । माता रामकुंवारी ने पनेर जाने से पहले बहन राजल को घर लाने का आदेश दिया ताकि भाभी पेमल का स्वागत करने के लिए तैयार रहे । तेजाजी ने माता का आदेश मानते हुए, बहन राजल जो कि अजमेर के पास तबीजी गांव में जोगाजी सियाग के घर ब्याही हुई थी । लेने पहुँचे और अगले दिन राजल को लेकर घर आये । जाटों में सदैव यह परंपरा रही है कि बहू पहली बार घर आये तो ननद उसका स्वागत करें ।


माता रामकुंवरी ने पंडितजी से तेजाजी के प्रस्थान के लिए शुभ मुहूर्त जानना चाहा । पंडितजी ने अपने पोथी-पन्नों में देखा और निराशा से कहा कि अभी पनेर जाने का मुहूर्त नहीं है ।

तेजाजी ने कहा कि मैं तीज से पहले पनेरा जाऊँगा । मैं मुर्हूत नहीं मानता " शेर जब जंगल में निकलता है तो वह किसी से मुर्हूत पूँछकर नहीं निकलता ।"

तेजाजी ने लीलण घोड़ी का श्रृंगार किया और सवार होकर पनेर के लिए अकेले ही निकल पड़े । रास्ते में बरसात होने लगी । तेजाजी नदी नाले लांघते हुए रात्रि में खरनाल पहुँचे । रात्रि विश्राम के लिए बाग के माली को दो सोने की मोहर दी ।

लीलण ने रात में पूरे बाग को उजाड़ दिया ।

सुबह के समय बाग के माली ने जाकर पेमल को शिकायत की " बाग में रात्रि के समय एक परदेशी आया था जिसकी घोड़ी ने पूरे बाग को उजाड़ दिया है ।"

पेमल ने परदेशी के बारे में जानकारी लेने के लिए भाभी को बाग में भेजा ।

तेजाजी ने जब अपना परिचय दिया तो पेमल की भाभी उन्हें पहचान गई और घर पधारने का निमंत्रण दिया ।

इधर जब सास बोदलदे को तेजाजी के पनेर आने की सूचना मिली तो काफी क्रोधित हुई ।

पेमल को जब भाभी से पता चला कि बाग में आया परदेशी उसका पति परमेश्वर है तो उससे रहा नहीं गया और वह अपनी सहेली लाछां गूर्जरी के साथ पानी लेने का बहाना बनाकर बाग की ओर गई ।

शाम के समय जब तेजाजी बाग से निकलकर, रायमल जी के घर की ओर बढ़े, तब पनघट पर पेमल और लाछां के साथ पहला साक्षात्कार हुआ ।

जब लीलण पर सवार तेजाजी ने रायमल जी की पोळ में प्रवेश किया, लीलण के घुँघरुओं की आवाज से गायें बिदक गई । पहले से क्रुद्ध सास बोदलदे ने ताना मारा " काला नाग खाये उसको, कौन है जिसने मेरी गायें बिदका दी ?"

सासु बोदलदे के इन बोलों से तेजाजी दुखी हुए और लीलण की पीठ थपथपाई और बोले " जिन कदमों आई हो लीलण उन्हीं कदमों वापस लौट चलो । नुगरां की धरती पर वासो न करां ।"


लीलण वापस मुड़ कर रायमल जी की पोळ से बाहर निकल गई ।

यह सब घटनाक्रम छत पर खड़ी पेमल और लाछां ने देखा तो दौड़कर नीचें आई ।

लाछां दौड़कर तेजाजी के पीछे गई और उन्हें रोका । तेजाजी ने वापस रायमल जी की पोळ लौटने से मना कर दिया । तब लाछां गूर्जरी ने तेजाजी को अपने घर लाछां की रंगबाड़ी में रोका ।

पेमल ने अपनी माँ को काफी बुरा भला कहा और पिता रायमल जी को जब इसका पता चला तो वो लाछां की रंगबाड़ी तेजाजी को मनाने पहुंचे । तेजाजी ने वहीँ रुकने का फैसला किया ।

तेजाजी के लाछां की रंगबाड़ी में रुकने से बोदलदे की योजना असफल रही और बोदलदे लाछां से क्रोधित हो गई ।

बोदलदे ने तत्काल अपने धर्मभाई कालिया मीणा से सम्पर्क किया और लाछां की सभी गायों को चोरने को कहा । कालिया मीणा इसके लिए खुशी खुशी तैयार हो गया ।


बोदलदे ने कालिया मीणा को आश्वस्त किया कि उसे रोकने के लिए पनेर से कोई नहीं आयेगा ।


आज तो मौसम भी चोरों के लिए मुनासिब था, बरसात हो रही थी और रह रहकर बिजलियाँ चमक रही थी । कालिया मीणा ने रात्रि में लाछां की गायें चुरा ली, परन्तु आज तेजाजी 'लाछां की रंगबाड़ी' में सो रहे थे इसलिए, लाछां और उसका पति नंदू भी गायों के बाड़े में बनी झोपड़ी में सो रहे थे । गायों के घेरने की खड़बड़ाहट से वे जाग गए, नंदू ने जब प्रतिरोध की तो चोरों ने उसे भी पीटा और भाग गए । लाछां ने चोरी की सूचना मुखिया रायमलजी तक पहुंचाने की कोशिश की परंतु बोदलदे जो इसके लिए तैयार थी उसने बाहर से ही लाछां को भगा दिया ।


लाछां जानती थी कि जितना समय बीतता जायेगा, उसकी गायों का वापस मिलना भी उतना ही मुश्किल होता जायेगा । रोती-बिलखती लाछां ढोली के घर पहुँची और उससे "बार" का डाका ( पुराने जमाने में युद्ध की तैयारी के लिए ढोल को खास लय में बजाया जाता था, ताकि गांव वाले सतर्क हो जाये ) बजाने का अनुरोध किया, परंतु ढोली ने भी उसे मना कर दिया क्योंकि बोदलदे ने उसे पहले ही धमका रखा था ।


निराश और रोती हुई लाछां अपने पति के पास पहुँची और उसे लेकर अपने घर ' लाछां की रंगबाड़ी ' पहुंची, जहां तेजाजी सो रहे थे । लाछां नंदू के साथ घर के बाहर बैठ कर रोने लगी ।


लाछां के रोने की आवाज सुनकर तेजाजी की नींद खुल गई और कारण जानने के लिए तेजाजी बाहर निकले । रंगबाड़ी के दरवाजे के बाहर बने चबूतरे पर नंदू लेटा हुआ था और उसके नजदीक बैठी लाछां रो रही थी ।


तेजाजी की नींद लाछां के रोने से खुल गई और उन्होंने लाछां से रोने का कारण पूँछा । लाछां ने गायें चोरी होने की बात बताई ।


" तुम चिंता मत करो लाछां ! तेजा जाट तुम्हारी एक एक गाय को वापस लेकर आयेगा ।" तेजाजी ने मूँछ मरोड़ी और अपने पाँचो हथियार ( भाला, तीर, कमान, तलवार और कटार ) उठा लिए । अंधेरे में लीलण तेजा के इशारे पर चोरों के भागने की दिशा में बढ़ गई ।


अंधेरे में चमकती बिजली की चमक में तेजा गायों के निशानों का पीछा करते हुए आगें बढ़ रहा था । वर्तमान सुरसुरा के नजदीक तेजाजी को बिजली गिरने से एक जगह आग लगी हुई दिखाई दी । आग में एक नाग-नागिन का जोड़ा फंसा हुआ था, जिसमें से बिजली गिरने से नागिन मर चुकी थी और नाग भी जलने वाला था । तेजाजी ने जीव दया करते हुए भाले की नोक से नाग को आग के घेरे से बाहर निकाल दिया । नाग को तेजाजी द्वारा खुद को बचाना नागवार गुजरा और गुस्से में तेजाजी को काटना चाहा ।


तेजाजी बोले " हे नागराज ! मैने तो आपका भला ही चाहा है और आप मुझे ही डसना चाहते हैं ?"


" तेजा ! तुमने मेरे को बचा कर बहुत बडा अन्याय किया है । अभी मैं आग में मर जाता तो सीधा बेकुंठ जाता । अब मैं बिना मेरी नागिन के सैकड़ों वर्षों तक जमीन पर घिसटता रहूँगा । मैं तुम्हें डसकर अपना बदला लूँगा ।" नाग बोला


" नागराज ! अभी तो मैं लाछां को दिये वचनों का पालन करने चोरों के पीछे जा रहा हूँ । मैं 8 पहर में वापस लौट कर आऊँगा । मैं चांद, सूरज, और इस खेजड़े के वृक्ष को साक्षी मानकर वचन देता हूँ ।" तेजाजी के वचन देने पर नाग ने रास्ता छोड़ दिया


तेजाजी लीलण पर बैठकर मीणाओं के पीछे चल दिये । वर्तमान तिलोनिया गांव के नजदीक तेजाजी ने दो चोरों को मारा ( वर्तमान में भी यहाँ उनकी देवलिया स्थापित है ) ।


मंडावरिया की पहाड़ियों के नजदीक कालिया मीणा ने डेरा डाल रखा था । तेजाजी ने कालिया मीणा को ललकारा और गायों को छोड़ने का प्रस्ताव रखा । तेजाजी को अकेले देख कालिया मीणा हँसा और ढाई सौ के करीब मीणा साथियों के साथ तेजाजी पर हमला कर दिया ।


विश्व के इतिहास में इससे भयंकर युद्ध नहीं हुआ । एक तरफ ढाई सौ चोर और दूसरी तरफ शेषनाग के अंश तेजाजी जाट । तेजाजी का बिजलसार का भाला चमका और देखते ही देखते मीणाओ की तादात कम होने लगी । कालिया मीणा अपने गिरोह का नाश होते देख मैदान छोड़ भागा । भागते भागते लाछां की गायों में से एक बछड़ा ले गया और मंडावरिया की पहाड़ियों में छुप गया ।


चोरों के भागते ही तेजाजी ने लाछां की गायें संभाली और वापस पनेर की राह पकड़ ली । सवेरा होते होते तेजाजी लाछां की गायों को लेकर वापस पनेर पहुंच गए ।


लाछां अपनी गायों को देख बहुत खुश हुई, परंतु जल्दी ही पता चला कि एक बछड़ा " काणा केरड़ा " गायों के साथ वापस नहीं लौटा । तेजाजी ने लीलण को वापस मोड़ा और "काणा केरड़ा" लेने चल दिये ।


इधर कालिया मीणा तेजाजी के गायें लेकर जाने के बाद मंडावरिया की पहाड़ियों से निकला और सौ के करीब जो जीवित बचे साथी थे उनके साथ नरवर की पहाड़ियों की ओर बढ़ गया । जहाँ उसका पुराना मित्र बालिया काला था जो तेजाजी से उसकी हार का बदला लेने में सहायता कर सकता था ।


तेजाजी जब मंडावरिया की पहाड़ियों के नजदीक पहुंचे वहाँ मारे गए चोरों की लाशों के सिवा कोई नहीं था । तेजाजी ने वहाँ काणा केरडा की तलाश की और जब नहीं मिला तो गीली जमीन पर चोरों के जाने की दिशा में बढ़ गये ।


कालिया मीणा और बालिया काला दोनों नरवर की पहाड़ियों के नजदीक मिले और एक दूसरे का हाल जाना । कालिया ने जब बालिया काला से सहायता मांगी तो उसने मदद करने की हामी भरी । कालिया मीणा के ख़बरियो ने सूचना दी कि तेजाजी उन्हें ढूँढते हुए इसी तरफ आ रहे है ।


कालिया मीणा, तेजाजी के पराक्रम से वाकिफ था । उसने आमने सामने की लड़ाई के बजाय बालिया काला के साथ नरवर की घाटी के दोनों तरफ छुपकर तेजाजी पर हमला किया । दोतफरा और घात लगाकर किये हमले से तेजाजी बुरी तरह घायल हो गए,  जगह जगह से लहू रिसने लगा, परंतु उनका भाला पूरी तेजी से चलता रहा, यहाँ लीलण ने भी अपना द्रोण रूप दिखाया कई चोर लीलण के खुरों का निशाना बने । घायल तेजाजी ने कालिया-बालिया के सम्पूर्ण गिरोह का नाश किया, दोनों पापियों का वध किया और काणा केरडा को लेकर पनेर के लिए रवाना हुए ।


पनेर पहुंचकर तेजाजी ने लाछा गुर्जरी को काणा केरडा सौंपा और लीलण को वापस ( वर्तमान सुरसुरा में ) उस स्थान पर पहुंचे जहां नाग उनका इंतजार कर राजा था । नागराज ने तेजाजी के लहू-लुहान शरीर को देख डसने से मना कर दिया । तब तेजाजी ने अपनी जीभ पर डसने का निवेदन किया । तेजाजी ने अपना भाला आगें किया और नाग ने भाले पर कुंडली मारकर तेजाजी की जीभ पर डस लिया ।


तेजाजी ने वहीं नजदीक ही भेड चरा रहे आंसू देवासी को अपना " मेमद मोलिया " दिया और पेमल तक पहुंचने का वचन लिया । लीलण को खरनाल माता, दादा, बहन और भाई भौजाई को खबर पहुंचाने भेजा ।


वर्तमान में किशनगढ़ तहसील के सुरसुरा गांव में भाद्रपद शुक्ल दशमी संवत 1160 ( 28 अगस्त 1103 ) नागराज के डसने से तेजाजी ने देह त्याग परलोक के लिए गमन किया ।


जब यह बात पेमल को पता चली तो बहुत दुखी हुई और माता बोदलदे से सत का नारियल मांगा और चिता बनाकर तेजाजी के साथ सूर्यदेव की अग्नि से सती हो गई । खरनाल में लीलण को बिना तेजाजी के आये देख बहन राजल सब समझ गई और धुवा तालाब की पाल पर धरती में समा गई । लीलण ने भी तेजाजी के वियोग में तालाब की पाल पर प्राण त्याग दिये ।


TEJAJI

तेजाजी कथा उपसंहार


वीर तेजाजी की कृषि वैज्ञानिक की सोच व योगदान के कारण किसान उनको कृषि का देवता मानने लग गए।नाग के प्रति अटल आस्था को देखते हुए जब भी तेजाजी का चित्र,मूर्ति आदि बनाते है तो उनके साथ काले नाग को कभी नहीं भूलते है।11वीं सदी में गायों के लिए बलिदान को सर्वोच्च बलिदान माना जाता है।


तेजाजी ने अपने कर्मों और आचरण से जनसाधारण को सद्मार्ग को अपनाने उस पर आगें बढ़ने के लिए प्रेरित किया । जात-पांत, छुआ-छूत आदि सामाजिक बुराइयों पर अंकुश लगाया । पण्डों के मिथ्या आडंबरों का विरोध किया, आज भी तेजाजी के मंदिरों में अधिकतर निम्न वर्णों के लोग ही पुजारी का काम करते हैं । इतिहास में समाज सुधार का इतना प्राचीन उदाहरण नहीं है । इस तरह तेजाजी ने अपने सद्कर्मों से जन-साधारण में एक चेतना जागृत की । कर्म, शक्ति, भक्ति व वैराग्य का जैसा तालमेल तेजाजी ने प्रस्तुत किया अन्यत्र दुर्लभ है ।


भाद्रपद शुक्ल दशमी को पूरे भारतवर्ष में प्रतिवर्ष तेजादशमी के रूप में मनाया जाता है । इस दिन जगह जगह पर तेजाजी के मेले लगते हैं, जन्मस्थली खरनाल में लाखों लोग तेजाजी के सम्मान में जुटते है । तेजाजी की गौ रक्षक एवं वचनबद्धता की गाथा लोक गीतों और लोक नाट्य के रूप में पूरे भारतवर्ष में श्रद्धा और भक्तिभाव से गाई व सुनाई जाती है ।


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